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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
प्रतिस्पर्धा उचित नही है ।' उनकी दृष्टि मे स्त्रियो के नौकरी करने का लक्ष्य स्वतन्त्रता और नौकरशाही का न होकर सहयोग का होना चाहिए । जैनेन्द्र के अनुसार स्त्री पुरुष की होड मे आगे नही बढ सकती, वरन् इस प्रकार लडखडा सकती है कि उसकी प्रगति का मार्ग ही अवरुद्ध हो जाय । जैनेन्द्र के उपन्यासो और कहानियो मे स्त्री पात्रो मे विवाह के घेरे से बाहर उन्मुक्त रूपसे सास लेने की कामना है, किन्तु सार्वजनिक क्षेत्रो मे वे पूर्ण स्वतन्त्रता के पक्ष मे नही है। 'सुखदा' मे सुखदा घर से बाहर निकलने पर स्वय मे एक हीनता का अनुभव करती है । उसे ऐसा प्रतीत होता है कि घर से बाहर राजनीति मे आकर उसने अपनी मर्यादा को भग किया है । जैनेन्द्र के नारी पात्र सार्वजनिक क्षेत्रो मे एक कुण्ठा लिए हुए ही अवतरित होते है । उनके मन की ग्रन्थि ही उन्हे राजनीति मे प्रवेश करने को विवश करती है।
जैनेन्द्र ने सामाजिक सन्दर्भ मे अति स्वातन्त्र्य का विरोध किया है, किन्तु पारिवारिक स्तर पर पत्नी की दासता का निषेध किया है । 'सुखदा', 'सुनीता, 'विवर्त' आदि उपन्यास उनका यह आदर्श प्रस्तुत करने के लिए पर्याप्त है। 'कल्याणी' तथा 'सुखदा' मे उन्होने स्पष्टत स्वीकार किया है कि पत्नी पति की सम्पत्ति नही है। पूजीवादी विचारक जड पदार्थ के रूप मे ही स्वीकार करते है। उनके अनुसार अन्य भौतिक पदार्थों के सदृश स्त्री की भी अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नही है। जैनेन्द्र के साहित्य मे २त्री-स्वातन्त्र्य की कामना क्रान्तिकारी रूप मे व्यक्त हुई है, किन्तु समाज की मर्यादा से बधी नारी कभी भी सामाजिक सीमा का उल्लघन नही कर पाती। जैनेन्द्र के उपन्यासो मे स्वतन्त्रता का जो रूप दृष्टिगत होता है, वह केवल प्रेम के सम्बन्ध मे व्यक्त हुआ है । प्रेम से इतर जीवन सभी दृष्टियो से मर्यादित है । 'त्यागपत्र', 'परख' आदि मे जीवन का जो आदर्श व्यक्त हुअा है, वह सामाजिक मर्यादा का पोषक ही है । जैनेन्द्र के अनुसार स्त्री का राजनीति में प्रवेश उचित नही है। उनकी दृष्टि मे स्त्री-प्रेम और प्रेरणा की मूर्ति है, प्रेम शक्ति है। प्रेमिका बनकर वह पुरुष को प्रगति की ओर अग्रसर करती है। 'मुक्तिबोध' मे उन्होने राजनीति में प्रवेश
१ 'स्त्री की आर्थिक स्वतन्त्रता की चाह को उचित नही मानता । स्त्री पुरुष
के भी स्नेह-भावना की जगह हिसाबी बुद्धि आ जाय तो जीवन लाभ की दृष्टि से उसमे कोई उन्नति नही कह सकूगा .।'
--जैनेन्द्रकुमार 'समय, समरया और समाधान', (अप्रकाशित) ।