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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
किया है, क्योकि उस अवस्था मे व्यक्ति की ग्रहचर्या पूर्णत विनष्ट हो जाती है । 'कामसूत्र' मे प्राचार्य वात्सायन ने काम सकल्प के भौतिक महत्व की अपेक्षा पारमार्थिक महत्व को प्रधान बताया है । उनके अनुसार वास्तविक सुखानुभूति का सम्बन्ध न तो इन्द्रियो से है और न मन से है, वरन् आत्मा से है । इस प्रकार वे 'काम' मे भौतिक जीवन की पूर्ति के साथ-साथ पारमार्थिक जीवन की उन्नति का स्रोत भी देखते है ।
स्त्री-पुरुष सम्बन्ध लिगत्व शून्य
जैनेन्द्र की अर्द्धनारीश्वर सम्बन्धी विचारधारा पर आचार्य वात्सायन के विचारो का प्रभाव स्पष्टत परिलक्षित होता है । उनके अनुसार प्रत्येक पुरुष के भीतर स्त्री की और प्रत्येक स्त्री के भीतर पुरुष की सत्ता सतत् विद्यमान रहती है । वात्सायन की दृष्टि मे यही बात ॠग्वेद के 'अस्य भावीय सूक्त' मे इस प्रकार कही गई है कि जिन्हे पुरुष कहते है, वस्तुत वे स्त्रिया है । 'साख्यदर्शन '
इस द्वन्द्वको गुण-क्षोभ कहा गया है । जैनेन्द्र भी स्वीकार करते है कि 'हरेक मे स्त्री-पुरुषत्व दोनो रहते है नितान्त स्त्री और नितान्त पुरुष व्यक्तित्व पाता ही नही ।' उन्होने स्त्री-पुरुष के विशुद्ध पार्थक्य को स्वीकार नही किया है, ऐसी स्थिति मे स्त्री-पुरुष के मिलन मे लिगत्व-भेद को मिटाकर अतीन्द्रियता की प्राप्ति की कामना विद्यमान रहती है । जैनेन्द्र के कतिपय आलोचक, जिनकी उपरोक्त लिगहीन विचारधारा को नपुसकता का द्योतक बताते है । जैनेन्द्र के साहित्य मे लिगहीनता को सामान्य अर्थों मे नही ग्रहण किया गया है । उनके साहित्य मे लिगहीनता एक प्रतीतिमात्र है । उस प्रतीति को नपुसकता से जोडना सगत नही है । उनकी दृष्टि मे लिगहीनता की प्रतीति शरीर पर व्यान केन्द्रित रखते हुए नही हो सकती । उसके लिए व्यक्ति की आत्मोन्मुखता अनिवार्य है । 'जयवर्द्धन' मे काम द्वारा प्रकाम की ओर उन्मुखता के दर्शन होते है । जय के विचारो से स्पष्टत ज्ञात होता है कि 'कामचेष्टा के प्रभयन्तर मे जो अनिवार्य, आकुल आत्मचेष्टा है, वही उसका सार और रहस्य है ।' काम के क्षय के लिए जय आत्मोन्मुखता को अनिवार्य मानता है । उनकी दृष्टि मे आत्मा मे होकर पुरुष पुरुषातीत भी हो जाता है । उस अवस्था मे वह स्त्री से भिन्न नही रहता है । आत्मा मे लिगत्व नही है । भेद नही है, 'स्व' पर भेद
१ जैनेन्द्र कुमार 'समय और हम', पृ० ६२८ ।
जैनेन्द्र कुमार प्रतिनिधि कहानिया, स० शिवनन्दनप्रसाद,
पृ० ३७१ ।