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जैनेन्द्र और समाज
२०३ जैनेन्द्र के अनुसार हमारी नैतिक मान्यताए व्यक्ति के स्वास्थ्य से अधिक समाज की व्यवस्था पर आधारित है। किन्तु इस प्रकार व्यभिचार दूर होने के स्थान पर और भी पुष्ट होता है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे अनैतिकता का मूल कारण प्रेम के निषेध मे ही फलित होता है। प्रेम का अविश्वास करने और उसके प्रकट सचरण के मार्ग मे अवरोध लाने के कारण ही समाज मे अव्यवस्था उत्पन्न होती है। इसीलिए वे स्वीकार करते है कि-'हमारी नैतिक धारणाए साहस और श्रद्धा के स्पर्श से ज्वलन्त हो और केवल वे समाज व्यवस्था की चिन्ता से त्रस्त, भीत और कातर न हो।" उनकी दृष्टि मे वह सब प्राचार व्यभिचार है, जो हार्दिक नही है और जिसमे भय सचय है। वस्तुत जैनेन्द्र उस आचरण को ही नैतिक मानते है, जिसमे व्यक्ति की उपेक्षा की जाती है तथा अर्थ और पदलोलुपता ही प्रधान होती है।
वेश्यावृत्ति
सामान्यत वेश्या बनी नारी को कामुकता की प्रतिमा माना जाता है, मानो स्त्री स्वेच्छा से ही यह कलक अपने ललाट पर लगाती है। यदि 'वेश्या' शब्द तक ही सीमित रहता तो वह व्यक्तिगत समझा भी जा सकता था, किन्तु साथ जुडे हुए 'वृत्ति' शब्द से वेश्यावृत्ति की सामाजिकता का बोध होता है । जैनेन्द्र वेश्यावृत्ति के मूल मे स्त्री को दोषी न मानकर पुरुष को ही दोषी स्वीकार करते है । पुरुषो मे भी वेश्या की ओर तभी उन्मुखता हुई है, जब कि उनके पास अर्थ विद्यमान रहता है । जैनेन्द्र के अनुसार सृष्टि के प्रारभ मे नर और नारी दो ही थे । समाज मे वेश्या को स्थान तो अर्थवृद्धि होने पर ही आरम्भ हुआ था। वे वेश्यावृत्ति के मूल मे अर्थासक्ति को साध्य तथा कामवृत्ति को साधन के रूप मे स्वीकार करते है । जैनेन्द्र ने समाज मे फैली हुई ऐसी वेश्या-सस्थानो पर प्रकाश डाला है, जिनके सस्थापको को भोगवृत्ति के प्रति अनिच्छा होती है, किन्तु सस्था के द्वारा अधिक-से-अधिक धनोपार्जन की ओर उनकी दृष्टि केन्द्रित रहती है । इस प्रकार समाज से वेश्यावृत्ति का
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त', (अप्रकाशित) २ 'वेश्या पैसे के प्रारम्भ से पहले हो ही नही सकती "उजरत और कीमत
देकर जब भोग के लिए नारी को प्राप्त करते है, तभी तो उसे वेश्या कहते है। कीमत पैसे के रूप मे चुकाने की विधि ही न हो, तो वेश्या की स्थिति नही बन सकती।'
जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम,' पृ० स० ३४५ ।