________________
१६६
जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
रेखाए हैं, जिनके मध्य जीवन-यात्रा सभव होती है । जैनेन्द्र फ्रायड की भाति काम को भौतिक और दैहिक स्तर पर स्वीकार नही करते, वरन् उन्होने काम को आध्यात्मिक स्तर पर भी स्वीकार करके सामाजिक स्वीकृति प्रदान करने का प्रयास किया है । उन्होने सृष्टि के मूल मे भी ईश्वरीय शक्ति की कल्पना की है । जैनेन्द्र के अनुसार सम्भोग की स्थिति मे स्त्री-पुरुष इतने महशून्य हो जाते है कि उन्हे अपने अस्तित्व का भी बोध नही रहता । उस स्थिति मे सृष्टि सम्भवत ईश्वरीय शक्ति का परिणाम प्रतीत होती है ।" जैनेन्द्र की दृष्टि मे त्रास की चरम स्थिति ही परमानन्द की अवस्था है । परमानन्द ब्रह्मानन्द से परे कुछ नही है ।
फ्रायड के अनुसार सेक्स वह चीज है जिसमे लिंग भेद, प्रानन्दजनक, उत्तेजना और परितुष्टि, प्रजनन कार्य, अनुचित की धारणा और छिपाने की आवश्यकता सम्बन्धी सब बाते इकट्ठी या जाती है । जैनेन्द्र ने सेक्स को मात्र भोगाकाक्षा के रूप मे ही स्वीकार नही किया है । उनके समक्ष अर्ध-नारीश्वर का भाव ही वह मूल सूत्र है, जिससे स्त्री-पुरुष परस्पर बधे हे । उनके प्राक
रण के मूल मे निज की अपूर्णता ही विशेष रूप से दृष्टिगत होती है । स्त्री और पुरुष दोनो अपने मे अपूर्ण है । वे एक-दूसरे मे अपने प्रभाव की ही सम्पूति नही करते, वरन् वे पूर्णतया एकमेक होकर अपने ग्रह को विगलित करते है । उन्होने अपनी अर्धनारीश्वर सम्बन्धी धारणा को मनोविज्ञान, जीवविज्ञान और अध्यात्मवाद के आधार पर प्रस्तुत किया है । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से स्त्री-पुरुष का एकाकीपन दुसह हो उठता है । काम मे स्त्री तथा पुरुष एक-दूसरे मे खो जाने के हेतु प्रत्यनशील रहते है । जैनेन्द्र के अनुसार जो अधूरा है, वह तृष्णार्त है, जो पूरा है, अर्थात् जिस समर्पण मे अपना कुछ भी बचाकर नही रखा गया है, अपना अग तक भी नही वह यथार्थ है । पवित्रता के लिए वह आदर्श बनता है ।' जैनेन्द्र ने फ्रायड के सदृश काम को शरीर की भूख के रूप मे अवश्य स्वीकार किया है, किन्तु उन्होने उसे केवल शरीर के स्तर तक ही सीमित नही रखा है । उनकी दृष्टि मे काम भावना वह केन्द्र है, जिसमे व्यक्ति का प्रभाव विस जित होते हुए दृष्टिगत होता है । हविसर्जन ही जैनेन्द्र के साहित्य और जीवन का मूल तत्व है । जैनेन्द्र ने कामभावना मे शारीरिक से अधिक आत्मिक स्थिति को स्वीकार किया है । काम भावना यदि शरीर तक ही केन्द्रित रहे तो उसमे
१ जैनेन्द्रकुमार 'काम, प्रेम और परिवार', पृ० स० ११६ । २ जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।
३ जैनेन्द्रकुमार 'काम, प्रेम और परिवार', पृ० स० ३३ ।