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जैनेन्द्र और समाज
हार्दिक श्रद्धा के साथ उपभोग करती है, किन्तु मीरा और राधा असामान्य आदर्श है। सामान्य जीवन मे उनके आदर्शो की परिकल्पना सम्भव नही हो सकती, क्योकि मीरा जीवनपर्यन्त कृष्ण की दीवानी रहती है। उसके जीवन मे परिवार का कोई स्थान नही रह जाता। जैनेन्द्र के पात्र भी अपने प्रेम के कारण ही विवाह से प्राप्त होने वाली विषम स्थितियो को सहर्ष ही झेलते है। 'सुनीता' मे वीरान जगल मे जब सुनीता हरिप्रसन्न के समक्ष पूर्ण-समर्पण करने के बाद लौटती है तो उनका मन शान्त रहता है । वह पुन अपने परिवार मे सुख-शान्ति का वातावरण उद्भूत करने में सक्षम होती है। सुनीता मे जैनेन्द्र का प्रादर्श अपनी पूर्णता मे परिलक्षित होता है । किन्तु राधा और मीरा के जीवन के साथ सुनीता के जीवन मे समता नही दिखायी जा सकती। राधा और मीरा मे अतृप्ति नही है। वे स्वेच्छा से कृष्ण के समक्ष पूर्ण आत्मसमर्पण करती है।
जैनेन्द्र के उपन्यासो का द्वन्द्व केवल प्रेम को लेकर ही नही उत्पन्न होता, उसमे 'घर-बाहर' के मध्य असन्तुलन की स्थिति ही विशेपत खटकती है। उन्होने विवाह मे प्रेम को दो-चार स्थलो मे ही घटित होते हुए नहीं दर्शाया है, वरन् उनका समस्त कथा-साहित्य इसी धुरी पर आधारित है। उनके अनुसार पति-पत्नी मे प्रेमी-प्रेमिका समाप्त नही हो सकते । अलग से उन्हे होना ही है। दोनो का होना बन्द नही होने वाला ।'
जैनेन्द्र की विवाह और प्रेम सम्बन्धी विचारधारा समसामयिक अधिकाश लेखको मे दृष्टिगत होती है। सुप्रसिद्ध विद्वान हैवलाक एलिस इस सम्बन्ध मे यह स्पष्टत स्वीकार करते है कि-'हर पुरुष और स्त्रियो मे दूसरे व्यक्तियो के प्रति कमोबेश कामात्मक रूप मे अतिरजित स्नेह रहने की क्षमता होती है। चाहे वह व्यक्ति अपनी केन्द्रीय स्नेह के प्रति कितना ही एकगामी हो ।३ एलिस के अनुसार दाम्पत्य जीवन मे प्रारम्भ मे सब कुछ अज्ञात रहता है । अत धीरे-धीरे पति-पत्नी के मध्य स्नेहपूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो सकता है और उनका बाहरी खिचाव कम हो जाता है।
वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार-'विवाह जीवन को विस्तार देता है, परिधीय केन्द्र नही देता। विवाह द्वारा हम अपने प्रेम का विस्तार करने का अवकाश
१. जैनेन्द्र कुमार 'इतस्तत', पृ० स० ६८ । २ रामेश्वर शुक्ल 'उल्का' हिन्दी प्रचारक, पृ० स० १८५ ।
तथा अज्ञेय 'नदी के द्वीप में। ३ हैवलाक एलिस 'यौन मनोविज्ञान', पृ० २७० ।