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जैनेन्द्र और समाज
१८१ से परे स्त्री-पुरुष को उनके प्रकृत रूप मे स्वीकार किया है, यही जैनेन्द्र की मौलिक देन है।
जैनेन्द्र ने सामाजिक व्यवस्था को अनिवार्य रूप से स्वीकार किया है। व्यक्ति समाज मे रहकर ही अपने व्यक्तित्व का समुचित विकास करता है तथा समाज ही उसे मान और प्रतिष्ठा प्रदान करता है। यदि समाज न हो तो व्यक्ति का व्यक्तित्व स्वय मे अर्थहीन हो जाता है । 'त्यागपत्र' मे जैनेन्द्र ने सामाजिक मर्यादा का जो रूप पस्तुत किया है, वह उनकी सामाजिक दृष्टि को व्यक्त करने मे पूर्णत सक्षम है। 'मृणाल' समाज की क्रूर छाया के भीतर जीवनयापन करती हुई सामाजिक मर्यादा को अन्तिम सास तक बनाए रखती है। यद्यपि यह स्थिति कभी-कभी अतिरजनापूर्ण प्रतीत होने लगती है, किन्तु उसमे कही झूठ की दीवार नही खडी की गई है। समाज के क्रूर हाथो मे दया का कोई स्थान नहीं है। वस्तुत 'त्यागपत्र' मे जैनेन्द्र ने समाज के तिरस्कृत तथा नितान्त अवहेलनीय पक्षो को अपनी हार्दिकता के सस्पर्श से उभारने का प्रयास किया है, जिससे उनके द्वारा प्रस्तुत व्यक्ति के प्रति हममे गहरी सहानुभूति जागृत हो उठती है। मृणाल अपनी व्यथा को अन्तस् मे छिपाए हुए प्रतिष्ठित समाज की दृष्टि से दूर चली जाती है । वह स्वय टूट सकती है, किन्तु समाज मे स्वय को लेकर क्रान्ति उत्पन्न करना उसे स्वीकार नही है।'
'त्यागपत्र' मे मृणाल समाज की मर्यादा को प्रोढे हुए आत्मपीडन को ही प्रश्रय देती है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस विषम स्थिति मे ही उसके अन्तस् मे कोई ऐसी शक्ति अवश्य है, जो उसे सदैव जीवन से विमुख होने से वचित किए रहती है, और वह शक्ति है, उसका अन्तनिष्ठ प्रेम । अपने प्रेम को सार्थकता प्रदान करने के लिए ही वह अपने जीवन को नितान्त वस्तुता प्रदान कर देती है। मर कर वह प्रेम के प्रति कृतार्थ नही हो सकती थी। अतएव प्रेम की पीडा को लिए हुए ही वह अपने जीवन की इह लीला समाप्त करती है । वस्तुत जैनेन्द्र ने सामाजिक सत्य के मूल मे व्यक्ति सत्य को जीवन-शक्ति के रूप मे अन्तर्भूत किया है। वे कही भी व्यक्ति-निरपेक्ष होकर समाज का चित्रण नही करते । जैनेन्द्र के साहित्य का यह सनातन सिद्धान्त है।
परिवार और विवाह
ससार स्त्री-पुरुपमय है। सृष्टि के प्रारम्भ से ही ससार केवल स्त्री-पुरुष
१. 'मैं समाज को तोडना-फोडना नही चाहती हू, समाज टूटी कि फिर किसके
भीतर बनेगे।' - जैनेन्द्रकुमार . 'त्यागपत्र', पृ० स० ७२ ।