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जैनेन्द्र और समाज
१७६ कि व्यक्ति उन सामाजिक मर्यादापो से परे जीवन के सत्य को समझने मे असमर्थ है । सत्य तो अन्तर्भूत ही हो सकता है। अतएव जीवन के सत्य का बोध प्राप्त करने के लिए बाह्य जीवन की घटनाप्रो और द्वन्द्वो से ऊपर उठना आवश्यक है । प्रेमचन्द का साहित्य तत्कालीन समाज का कोरा फोटोग्राफ तो नही है, तथापि उसमे सामाजिक जीवन की पूर्ण और स्पष्ट अभिव्यक्ति हुई है। उनकी कलादृष्टि तत्कालीन स्थिति के अग-प्रत्यग का स्पष्ट चित्र अभिव्यक्त करने में सक्षम है। उसमे समाज का एक-एक अग उभर कर स्पष्टरूप से प्रस्तुत हुआ है । घटनाओ के सदृश ही लेखक ने व्यक्ति के व्यक्तित्व को भी ऐसे ऐगिल से देखा है, जिससे उसकी बाह्यावृत्ति पूर्णत प्रतिबिम्बित हो सकी है, किन्तु यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति एक वस्तु और स्थिति को एक ही कोण से देखे । दृष्टि-भेद के कारण अभिव्यक्ति के स्वरूप मे भी अन्तर पाना स्वाभाविक है। जैनेन्द्र के साहित्य मे सामाजिक मर्यादा का उल्लघन नही किया गया है, तथापि उन्होने समाज को इस दृष्टि से देखा है, जिसमे बाह्य स्थूलता से अधिक आत्मगत सूक्ष्मता ही लक्षित होती है। जैनेन्द्र के साहित्य में भी जीवन की यथार्थता आदर्श से असम्पृक्त नहीं है, किन्तु उनकी दृष्टि मे यथार्थ घटनाबद्ध न होकर सत्य से युक्त है और आदर्श किन्ही निश्चित मानदण्डो तक ही परिमित न होकर यथार्थ से ऊपर उठने की चेष्टा मे ही लक्षित होता है । वस्तुत जैनेन्द्र ने समाज की स्थितियो से अधिक सामाजिकपरिवेश मे जीने वाले आधार रूप व्यक्ति के अन्तर्द्वन्द्वो को अभिव्यक्ति दी है। उनकी कलात्मक अभिव्यक्ति व्यक्ति और वस्तु के सर्वागो को उभारने से अधिक व्यक्ति की मन स्थितियो को चित्रित करने में सक्षम है। इस प्रकार जैनेन्द्र के पात्र हमे स्थितिगत क्षोभ न देकर अपनी अन्तर्व्यथा का रस देते है । वे जीते तो समाज मे ही है, किन्तु वे समाज के घात-प्रतिघात को स्वय ही झेल लेते है । अपनी पीडा को लेकर वे समाज पर उत्बुद्ध नही होते, यही कारण है कि जैनेन्द्र के पात्रो द्वारा हमारे समक्ष सामाजिकता गौण हो जाती है और अन्तर्द्वन्द्व प्रमुख हो उठता है। जैनेन्द्र ने सामाजिक समस्यालो से अधिक समस्याओ के उत्स को ही प्रकट करने की चेष्टा की है। आदर्शो की घिसी-पिटी सीमाओ मे चलती हुई व्यक्ति-चेतना अर्थात् 'स्व' को जानने का प्रयास किया। प्रेमचन्दयुग मे सामाजिक नीति और मर्यादा के कारण व्यक्ति के अन्तस् भावो की पूर्णाभिव्यक्ति सम्भव नही हो सकी थी। व्यक्ति समाज के सन्दर्भ मे ही अपने व्यक्तित्व का विकास करता है। अतएव समाज की उपेक्षा तो सम्भव हो ही नही सकती, किन्तु समय के साथ सामाजिक नियमो मे परिवर्तन उपस्थित होना आवश्यक है।