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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
नही होता । 'सुखदा' में पारस्परिक तनाव के कारण बच्चे की शिक्षा स्वय मे एक समस्या बन जाती है । पारिवारिक तनाव की स्थिति मे व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध हो जाता है । जैनेन्द्र के पात्र व्यक्तिगत जीवन की मानसिक उलझन के कारण समाज मे अपना विशिष्ट स्थान नही बना पाते । जैनेन्द्र की रचनाओ मे उतना वैषम्य दृष्टिगत होता है कि उनके सम्बन्ध मे कोई निश्चित
fort नही बनाया जा सकता । 'कल्याणी' मे जो व्यथा है, वह 'मुक्त - प्रयोग' की स्वच्छन्दतापूर्ण परिस्थिति में सम्भव नही हो सकी है । भारतीय सस्कृति के आदर्श उसमे लुप्तप्राय हो जाते है । 'त्यागपत्र' मे एक विवाह सफल न होने पर दूसरा सभव नही हुआ है किन्तु 'मुक्ति प्रयोग' मे वैवाहिक अनुबन्ध भी प्रयोग मात्र रह गए है। एक के बाद दूसरे सम्बन्ध की ओर उन्मुखता ही प्रमुखरूप से दृष्टिगत होती है । उपरोक्त विरोधाभास को देखते हुए उनके विचारो के सम्बन्ध मे एक सुनिश्चित विचार निर्धारित करना कठिन हो जाता है । तथापि यह सत्य है कि जैनेन्द्र परिवार के अस्तित्व का खण्डन समाज के हित के लिए उपयोगी नही समझते । परिवार और विवाह समाज की बाह्य और अनिवार्य स्थितिया है । जैनेन्द्र के साहित्य में उत्पन्न होने वाली विषमता समाज को लेकर नही है, वरन् व्यक्ति की सच्चाई को लेकर उद्भूत हुई है । उनके सम्बन्ध मे यह कहना कि उन्होने समाज का विरोध किया है, उचित नही है । समाज सत्य है, किन्तु समाज के साथ व्यक्ति की सत्यता का निषेध नही किया जा सकता । समाज व्यक्ति से ही है और व्यक्ति की सार्थकता भी समाज मे ही सम्भव है ।"
विवाह और प्रेम
जैनेन्द्र के साहित्य की सबसे बडी समस्या विवाह मे प्रेम को स्वीकार करने के कारण ही उत्पन्न होती है । विवाह और प्रेम ( दाम्पत्य और रोमास ) को वे जीवन सरिता के दो समानान्तर किनारो के रूप मे स्वीकार करते है । उनके अनुसार वैवाहिक जीवन मे यदि बाहर से आने वाले प्रेम को निषिद्ध कर दिया जाय तो वैवाहिक जीवन मे एक घुटन सी उत्पन्न हो जायगी । वैवाहिक जीवन गवाक्ष है, कोठरी नही है । 'सुनीता' मे पारिवारिक जीवन की उदासीनता से मुक्ति पाने के हेतु ही सुनीता और श्रीकान्त के मध्य हरिप्रसन्न का प्रवेश होता है । 'सुखदा' मे सुखदा विवाह से पूर्व अपने भावी जीवन के सम्बन्ध मे जो
१ 'वैयक्तिक निरा कुछ भी नही होता, सब कुछ साथ ही सामाजिक होने को विवश है । '
— जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त' ( प्रकाशित) ।