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जैनेन्द्र का जोवन-दर्शन
के नाना सबधो द्वारा चल रहा है । कर्ता एकमात्र ईश्वर हे, किन्तु प्रत्यक्ष जगत् मे केवल यही दो व्यक्तित्व सक्रिय रहे है । आदिम युग मे मानव जीवन की कोई व्यवस्था नही थी । मनुष्य अपनी मूल प्रवृतियो को स्वच्छन्द रूप सन्तुष्ट करता था । सभ्यता के विकास के साथ स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध अधिक व्यवस्थित होने लगे है । ज्यो- ज्यो उनमे विवेक बुद्धि जाग्रत हुई वे जीवन की विविध समस्याओं की ओर उन्मुख हुए । परिवार व्यवस्था के क्रम में ही एक महत्वपूर्ण सोपान है । परिवार वह केन्द्र है, जहा स्त्री-पुरुष के विवाह के धार्मिक सस्कार को सम्पन्न करते हुए सन्तानोत्पति तथा शारीरिक, मानसिक, और आध्यात्मिक विकास की ओर उन्मुख होते हे ।
वैदिक काल से ही परिवार के व्यवस्थित रूप का प्रमाण मिलता है । रामायण महाभारतकालीन सभ्यता मे पारिवारिक व्यवस्था को पूर्ण प्रश्रय प्राप्त था । भारत मे बीसवी सदी से पूर्व अधिकाशत सयुक्त परिवार का ही प्रचलन या किन्तु समय के परिवर्तन के साथ-साथ सयुक्त परिवार विघटित होते गए । समाजवादी युग मे सयुक्त परिवार का कोई महत्व नही रह गया है । प्रेमचन्द के उपन्यास में विकाशत संयुक्त परिवार की घटनाए ही कथात्मक रूप मे ही प्रभिव्यक्त हुई है । घरेलू झगडे, कलह आदि का चित्रण उन्होने अपने उपन्यासो मे बहुत स्वाभाविक रूप से किया है । जैनेन्द्र के उपन्यासो मे सयुक्त परिवार का विशेषत उल्लेख नही हुआ है । उनके कथा साहित्य का निखार व्यक्ति के संदर्भ में ही दृष्टिगत होता है, परिवार के परिवेश मे नही । अर्थात् द्वन्द्व का कारण पारिवारिक समस्याए न होकर, प्रान्तरिक उत्पीडन से उद्भुत अन्तर्द्वन्द्व है । परिवार को उन्होने वैवाहिक जीवन के लिए अनिवार्य माना है । वे विवाह को किसी भी स्थिति मे उपेक्षरणीय नही मानते । अतएव विवाह के साथ परिवार का होना स्वाभाविक ही है । '
जैनेन्द्र भारतीय सस्कृति के पूर्ण समर्थक है । उनकी दृष्टि मे व्यवस्थाहीन समाज आदिम सभ्यता का ही प्रतीक हो सकता है । कृषिप्रधान युग मे सयुक्त परिवार ही विशेषरूप से प्राप्त होते थे किन्तु इस उद्योगवादी युग मे परिवार केवल पति-पत्नी तक सिमट गया है। इतना होते हुए भी जीवन नितात परीक्षण
१ 'विवाह ही है जो हमे ससार मे पहुचने का रास्ता देता है ।' बीस की पूर्णता होते ही इक्कीसवा वर्ष अपने आप उस पर आ जायगा । विवाह की ऐसी ही सहज परिरगति मैं मानता हू ।'
- जैनेन्द्रकुमार 'काम, प्रेम और परिवार', १६६१, प्र० स० दिल्ली, पृ०
स० २०-२१ ।
२ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० १३७ ।