________________
१७४
जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
जगत मे रहकर ही प्रतिभाशाली तथा महान बन सकता है, किन्तु ससार की उपेक्षा करके देवत्व को प्राप्त करने की अभिलाषा मात्र दम्भ नही है। जैनेन्द्र के साहित्य मे हमे ब्रह्मचर्य की नितात व्यावहारिक दृष्टि के दर्शन होते है। 'बाहुबली', 'विचारशील', 'व्यर्थ प्रयत्न', 'टकराहट' तथा 'जयवर्धन' आदि कहानियो मे जैनेन्द्र ने अहता का निषेध करते हुए समष्टि मानव की स्वीकृति को ही परम आदर्श माना है। बाहुबली राज-पाट त्याग कर अपने शरीर को तप से कृषित करता है, फिर भी उसे मोक्ष नही मिल पाता और ससार का भोग करने वाले भरत को केवल्य की प्राप्ति हो जाती है, क्योकि उसमे 'स्व' को विजित करने की अहता नही होती, वह स्वय को मानव-सेवा मे समर्पित कर देता है किन्तु बाहुबली के मन मे वह अहकार उत्पन्न हो जाता है कि मैं विजित है । यही काटा उसके केवल्य की प्राप्ति मे बाधक है। इसीलिए बाहबली तपस्या छोडकर सब के प्रति प्राप्य बन जाता है।'
'विचार शक्ति' मे राकेश आचार्य के सान्निध्य मे बहुत ही सयमपूर्वक रहता है । भक्तगण तक उनकी पूजा करते है किन्तु राकेश का मन भीतर से अशान्त और उद्विग्न बना रहता है। उसके मन मे अपनी अहता तथा झूठे ढोग का बोध होता है और वह अपने प्राण पाने के हेतु विकल रहता है। वह सहज बनना चाहता है । वह सोचता है कि क्या इन्द्रियो को वश मे करने के कारण ही पूज्य है। उसके मन मे अन्तर्द्वन्द्व चलता रहता है । कभी वह ससार की ओर झुकता है और कभी झूठी मर्यादा उसे अपनी ओर खीचती है । अन्तत वह ससार की उपेक्षा नही कर पाता। सासारिक स्त्री के समक्ष वह अपने मन के रहस्य को बार-बार छिपाता है, उसे 'माता' कहकर सम्बोधित
१ 'बाहुबली विजित है । यह वह बेचारा नही भूल सकता है।'
-जैनेन्द्र 'प्रतिनिधि कहानिया', पृ० १७८ । २ 'मै सब के प्रति सदा सुप्राप्त रहने की स्थिति में ही अब रहूगा।'
--जनेन्द्र 'प्रतिनिधि कहानिया', पृ० १७६ । ३ बाहर की ओर खुलने वाली सब इन्द्रियो को अपने मे प्रात्मस्थ करना
पडता है। इस सबसे ही क्या वह मनुष्य न होकर देव हो गया है ? या सामने पसारी जन मनुष्य से पशु बन गये है।
-जैनेन्द्र की कहानिया, नवा स०, पृ० १६१ । ४ 'ससार निन्दनीय और वन्दनीय नही है।'
-जैनेन्द्र की कहानिया, नवा स०, पृ० १३५ ।