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जैनेन्द्र के ग्रह सम्बन्धी विचार
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ही सहजोन्मुख होती है ।" यही कारण कि जैनेन्द्र की दृष्टि मे पाप शरीर तक ही सीमित नही है । उनके अनुसार पाप पर के निषेध मे है सत्य के दुराव मे है, सत्य की स्वीकृति मे नही । जैनेन्द्र के साहित्य मे ग्रहचेतना से तप्त व्यक्ति फूट-फूट कर रोते हुए पाए जाते है । रोकर वे अपनी आत्मा का परिष्कार तथा स्वत्व का विसर्जन करते है ।
काम और ब्रह्मचर्य
जैनेन्द्र के साहित्य मे सदैव महता पराजित होते हुए भी दृष्टिगत होती है । उनकी रचनाओ मे ग्रह को विजित करने का दम्भ सदैव पराभूत हुआ है । ह को विजित करके ब्रह्मचर्य की प्राप्ति हो सकती है यह व्यक्ति का बल है । यदि कोई व्यक्ति काम की उपेक्षा करके स्वय को देवत्व के आसन पर प्रतिष्ठित करना चाहता है, तो उसे अन्तत निराशा और अशान्ति की प्राप्ति हो सकती है । सासारिक सम्बन्धो की उपेक्षा करके तथा इन्द्रियो को पूर्णत सयमित करके ब्रह्मचर्य की साधना करने वाला व्यक्ति अपनी अतृप्त वासना के कारण कही का भी नही रहता । उनके मन मे भावना बस मथती रहती है कि वह विजित है उसने स्व को वश मे कर लिया है । जैनेन्द्र के अनुसार ब्रह्मचर्य की प्राप्ति ब्रह्म की चर्या मे ही सभव हो सकती है। प्रत्येक जीव मे ब्रह्म का निवास है । पर के निषेध से ग्रह - रति बढती है। मानव प्राणी व्यावहारिक
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'ऐसा नही प्रतीत होता कि हमने चेष्टा करके आवरणो को एक-एक कर हटाया है, मालूम ऐसा होता है कि जो सच ही था उसे सहज स्वीकार कर लिया है, विशेष चेष्टा की आवश्यकता नही हुई है । '
- जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ५४८ । 'नर-नारी का द्वन्द्व द्वैवत आदिम है, मौलिक है। इसी कुजी से मानव व्यवहार खुलेगा तो खुलेगा । दुनिया मे शान्ति और युद्ध का प्रश्न है। घटना के पट पर रखकर देखे तो वह हिसा-अहिसा का प्रश्न हो जाता है । पर दीखता है कि वह काम और ब्रह्म की चर्या से अलग प्रश्न नही है ।' — जैनेन्द्रकुमार 'अनन्त', पृ० ६६ । ३ ' हममे जितना जो है, वह अपने आप मे पर है । अब भगवान वह जो पर है, स्व मे भी है । ग्रह वह जो स्व मे ही है, पर मे एकदम नही है ।' - जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ५३६ । ४ 'जिसको दृढता समझा जाता है वह कही भीतर की रिक्तता तो नही है । मेरी स्वावलम्बिता कही मेरी स्व-रति तो नही है । अपने को बाटा नही है पूरी तरह सयुक्त जो रखा है— सो यह निपट ग्रह का अवलम्ब तो नही है ।' -जैनेद्रकुमार 'व्यतीत', दिल्ली, प्र० स०, पृ० स० १० ।
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