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जैनेन्द्र के अह सम्बन्धी विचार
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(आब्जेक्ट) को मारने मे अपनी अहता की तुष्टि करता है तथा 'पर' (स्त्रीत्व) पीटे जाने मे ही सतुष्ट होता है । 'मृत्युदण्ड'' शीर्षक कहानी में पति द्वारा पत्नी के पीटे जाने मे एक प्रकार से काम भावना और अहता का ही पोषण होता है। कल्याणी को जब पीटा जाता है तो वह स्वय को अपमानित नही समझती वरन् इस प्रकार वह अपनी आत्मा का परिष्कार ही करती है। मानो ताडना ही उसका भोग्य है।
जैनेन्द्र के साहित्य मे पर-पीडन-रति से अधिक 'आत्म-पीडन' की भावना ही प्राप्त होती है, क्योकि उनके पात्र दूसरे को त्रसित करने से अधिक 'स्व' को विगलित और दलित करने में अधिक सन्तुष्ट होते है । जैनेन्द्र का आदर्श आत्म पीडन मे विशेषत फलित होता है। मृणाल स्वय को कष्ट देने के लिए ही अपने भतीजे के पास नही जाती। वह नहीं चाहती कि उसके कारण कोई अपमानित हो । अतएव वह स्वय सारे कष्ट झेलते हुए भी आत्मतुष्टि की प्राप्ति करती है। जैनेन्द्र के साहित्य मे आत्मपीडन की भावना सामाजिक स्तर पर भी दृष्टिगत होती है । 'साधु की हठ' शीर्षक कहानी मे आत्म-पीडन का उत्कृष्ट रूप प्राप्त होता है । साधु एक गृहस्थ के घर भीख मागने जाता है, किन्तु प्रतिफल मे उसे शरीरिक ताडना मिलती है तथा गृहस्वामिनी को भी अत्यधिक पीटा जाता है । बेचारा साधु बहुत दुखी होता है । उसके मन मे यही भावना जाग्रत होती है कि सम्भवत उसमे कही अहता छुपी है अथवा उसके आचरण मे ही दोष है, उसकी भक्ति मे दोष है जिसके कारण बेचारी गृहस्वामिनी को पति द्वारा बुरी तरह पीटा जाता है । साधु ईश्वर के समक्ष अपने को स्वत्वहीन तथा अहकारशून्य बनाने के हेतु प्रार्थना करता है। पति (दरोगा) के क्रोध मे उसे अपना ही दोष प्रज्जवलित होता हुआ दृष्टिगत होता है। इस प्रकार वह अन्तत स्वय पीटा
१ जैनेन्द्र की कहानिया, नवा भाग, प्र० स०, १६६४, दिल्ली, पृ० स० ७८ । २ जैनेन्द्र कुमार जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ६, तृ० स०, १९६३, पृ० ५। ३ ... अोह प्रभु क्या मैने नही चाहा कि वह सब कुछ मुझमे से मिट जाय जो
तेरा नही है ? क्या अपने को तुझे सौप कर तुझसे नही प्रार्थना की कि मुझमे, मेरे रोम-रोम मे, मेरे अणु-अणु मे तू ऐसा रम बैठे कि किसी ओर भाव को कही स्थान ही न रहे ? . 'मैं क्या करू, जिससे वह व्यक्ति उस क्रोध के परिणाम से धुल जाय, जो मेरे कारण उसमे पैदा हुआ है ? उस बेचारे का अपराध नही। ...उसकी आत्मा को प्रात्म-पीडन और आत्मत्रास के भार से हलका कर देना होगा। अगर मै गुस्सा पैदा कर सकता ह तो गुस्से की मार भी जरूर मुझ पर पडनी चाहिए, लेकिन उस माता
को क्यो तू पिटने दे सका ?...। -जैनेन्द्र कुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया,' भाग ६, तृ० स०, १९६३, पृ० १४ ।