________________
१७०
जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
जाकर उस व्यक्ति के अन्तस से क्रोध (अहकार) को नष्ट करना चाहता है। अन्त मे वह सफल भी हो जाता है। साधु के द्वारा जैनेन्द्र ने आत्म-पीडन का बहुत उच्चादर्श व्यक्त किया है । कोई भी व्यक्ति किसी को कष्ट देकर स्वय सन्तुष्ट नही हो सकता । पति भी जब तक विनम्र नही हो जाता तब तक उसकी (पति की) अहता उसे पागल बनाए रहती है। प्रेम और समर्पण मे ही अहता के परिष्कार की सम्भावना देखी जाती है । समर्पण अन्तत ईश्वरोन्मुख ही होता है। ___ उपरोक्त सैडिज्म (पर-पीडा) और काम-प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व प्रेम और घृणा की प्रवृत्तियो द्वारा होता है । प्रेम मे आत्मरक्षा की भावना होती है, किन्तु घृणा मे विध्वसात्मक प्रवृति जाग्रत हो जाती है, जिसे फ्रायड ने 'डेथ इन्स्टिक्ट' कहा है । जैनेन्द्र के साहित्य मे घृणा का प्रतिरूप ध्वसात्मक प्रवृति के रूप मे फलित होता है । जितेन अपने प्रेम-पात्र की अप्राप्ति तथा समर्पण के अभाव मे प्रतिक्रियावादी हो जाती है । उसकी अहता तोड-फोड मे ही तुष्टि प्राप्त करती है । जितेन द्वारा गाडी के पलटने भुवन मोहनी को जगल मे ले जाकर भयभीत करने मे उसकी उग्र अहता का ही प्रदर्शन होता है । किन्तु इस वसात्मक चेष्टा से अहता विगलित नही होता, वरन् और भी कठोर बनता जाता है। 'रत्नप्रभा'३ शीर्षक कहानी मे रत्नप्रभा का एकाकी जीवन उसे विक्षिप्त तथा कठोर बना देता है । किसी के स्वेच्छद हास-परिहास से उसके मन मे कचोट होती है । उसके अचेतन मन मे वासना का जो रूप सुषुप्त है, वह चेतन पर सतोष प्राप्ति का विकृत मार्ग ढूढता है। छोटे-से भोले बालक को वह कामोत्तेजक पुस्तके बेचने के लिए डाटती है। उसके मन मे कही से आवाज आती है कि वह ऐसी पुस्तके स्वच्छन्द रूप से क्यो बेचता है । उसका मन खुल नही पाता। उसमे कुठा होती है, इसीलिए वह बालक को पीटती है । वह उसे पीट कर अपनी अहता को पुष्ट करना चाहती है, इस प्रकार उसका अहभाव और भी उग्रतर होता जाता है। उसे आत्म-त्राण नही मिल पाता। उसके हृदय के प्रेम ने निषेधात्मक आचरण अपना लिया है। यही कारण है कि भोला बालक उसके वैभव की ओर भी आकृष्ट नही होता । रत्नप्रभा अपने वैभव के मद मे चूर होती है। बालक को लेकर वह एकान्त मे रहने के लिए नैनीताल भी जाती है, किन्तु वहा भी उसे सन्तोष नही
१ Fraud - ‘Ego and the Id' २ जैनेन्द्रकुमार 'विर्वत', १६५३, प्र० स०, दिल्ली, प.० २५६ । ३ जैनेन्द्र 'प्रतिनिधि कहानिया' (स० शिवनन्दनप्रसाद), दिल्ली, १९६६, पृ०
२७६ ।