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जैनन्द्र के अह सम्बन्धी विचार
उसी प्रकार होने का हक है, जैसे स्व को । अहिसा का मूलादर्श इसी तथ्य मे निहित है । जैनेन्द्र किसी क्षेत्र मे हठवादिता को प्रश्रय नही देते । उनकी यह दष्टि जैन दर्शन के अनेकान्त अथवा स्याद्वाद से प्रभावित है । जैन दर्शन मे प्रत्येक मत सीमित अथवा सापेक्ष दृष्टि से सत्य है, उसी प्रकार जैनेन्द्र के अनुसार विभिन्न दल सम्प्रदाय स्व तक ही सीमित रहने के लिए नही है। उन्हे पर की स्वीकृति भी करनी चाहिए। मतवाद के क्षेत्र मे वे किसी को खण्डित न करते हए सब को अपनी निजता के स्थायित्व का अवसर प्रदान करते है। यही जैनेन्द्र का सामूहिक अह है और अहिसा सामूहिक अह की सक्रियता प्रदान करने का मूलाधार है। श्री वीरेन्द्रकुमार गुप्त ने भी इसी सत्य की ओर इगित किया है।
जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति की अहता का विगलन सर्वाधिक काम-प्रवृति के द्वारा हुआ है । यद्यपि आत्म-समर्पण के विभिन्न मार्ग है, किन्तु जैनेन्द्र की दृष्टि में काम (सेक्स) के क्षेत्र मे व्यक्ति का स्व जितना शून्यवत् हो जाता है, उतना ही अन्य भाव के द्वारा नही । यही कारण है कि उनके साहित्य मे काम-भावना की अतिशयता दृष्टिगत होती है। जैनेन्द्र के साहित्य मे कामभावना की अतिशयता को देखकर सामान्यत वह आलोचना की जाती है कि उनके साहित्य मे कामुकता अधिक है, किन्तु कामुकता और काम-भावना मे बहुत अन्तर है। जैनेन्द्र के साहित्य का अवलोकन करते हुए यह बात पूर्णत स्पष्ट हो जाती है। समर्पण भाव : ___जैनेन्द्र ने मानव-मानव की परस्परता पर बहुत अधिक बल दिया है। वीरेन्द्रकुमार गुप्त के अनुसार परस्परता का महत्वपूर्ण अग नर-नारी सयोग अर्थात् सैक्स है । स्त्री-पुरुप सम्बन्ध को ही केन्द्र मे रखकर जैनेन्द्र ने अपने सम्पूर्ण साहित्य की रचना की है। जैनेन्द्र के अनुसार नर और नारी सृष्टि के दो अग है। दोनो स्वय मे अपूर्ण है । दोनो अपनी प्रशता अथवा अपूर्णता मे पूर्णता की
ओर उन्मुख होते है । उनके साहित्य मे स्त्री-पुरुष के मध्य जो आकर्षण दृष्टिगत होता है, वह उनकी अपूर्णता के कारण ही होता है। 'जयवर्द्धन' भे उन्होने स्पष्टत व्यक्त किया है कि स्त्री-पुरुष का आकर्षण .. एक प्रकार के खण्ड का अखण्डता के अश का पूर्णता के प्रति आकर्षण है । जीवात्मा परमात्मा का आकर्षण है।' उनका विचार है कि स्त्री और पुरुष जब परस्पर इतने लीन १ जनेन्द्र कुमार 'समय और हम', पृ०स० २६ (उपोद्घात से)। २. जैनेन्द्रकुमार 'जयवर्धन' (१९५६), दिल्ली, पृ० ३२४ ।