________________
१६२
जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
विगलन किया है तथा पात्रो के मन मे किन तथ्यो को लेकर द्वन्द्व जाग्रत होता है ? इस दृष्टि से जैनेन्द्र के सम्पूर्ण कथात्मक साहित्य का मन्थन आवश्यक है ।
जैनेन्द्र साहित्य के अवगाहन तथा उसकी स्पष्ट ग्राह्यता के लिए जैनेन्द्र के ग्रह सम्बन्धी विचारो को जानना अनिवार्य है । उनकी साहित्य-रचना का मूल भाव प्रभाव ( मैं ) का विसर्जन हे । सामान्यत एकाकी मन अपनी महता को सामाजिक जीवन मे विगलित होते हुए न देखकर साहित्य के माध्यम से ही अपनी आत्माभिव्यक्ति तथा आत्मपरिष्कार करता है । जैनेन्द्र ने भी साहित्य-सृजन मे अपने अह भाव के परिष्कार का मार्ग ही खोजा है । जैनेन्द्र के साहित्य मे शून्यता, भाव, समर्पण आदि विविध रूपो मे ग्रहभाव की अभिव्यक्ति हुई है । जैनेन्द्र के साहित्य प्रभाव को बहुत ही व्यापक परिप्रेक्ष्य मे स्वीकार किया गया है । राजनीति, समाज, धर्म आदि विविध क्षेत्रो मे निहित अह सम्बन्धी विचारो को समझे बिना उनके सम्बन्ध में कोई भी विवेचन पूर्ण नही हो सकता | जैनेन्द्र के अनुसार जिस प्रकार व्यक्ति मे ग्रहभाव होता है, उसी प्रकार समूह की भी ग्रहता होती है । देश राष्ट्र आदि सभी 'स्व-पर' के भेद के कारण ग्रह-भाव से युक्त है। जीवन के व्यापक क्षेत्र मे जैनेन्द्र ने अपनी अहिसात्मक धारणा द्वारा स्व-पर के भेद को मिटाने का प्रयास किया है ।' जिस प्रकार व्यक्ति 'मैं' भाव के कारण 'पर' का निषेध करता है उसी प्रकार पूरे समूह का ग्रह भाव भी 'पर' का निषेध करता है । जैनेन्द्र ने अपनी श्रहिसक नीति के आधार पर विभिन्न मतवादो, दल तथा राष्ट्रगत महता का निषेध करते हुए समष्टि मानव प्रेम तथा आत्मीयता का भाव उत्पन्न करने की ओर बल दिया है । विचारो मे मतभेद होना स्वाभाविक है, किन्तु यदि कोई विशिष्ट सम्प्रदाय अपने ही मत अथवा सिद्धान्तो को सत्य मान कर दूसरे सम्प्रदाय के विचारो का खण्डन करता है तो इस प्रकार समाज मे द्वन्द्व ही बढ़ता है । जैनेन्द्र के अनुसार भौतिकता के वर्तमान युग मे नित्य प्रति होने वाले सघर्ष के मूल मे सामूहिक ग्रहता ही विद्यमान है । व्यक्ति की स्वार्थ भावना ही समूह की अहता को पुष्ट करने में सहायक होती है । जैनेन्द्र के पात्र सदैव त्याग और पर-हित की कामना के द्वारा अपनी ग्रहता को 'पर' के हित मे समर्पित करने के लिए तत्पर रहे है । उनमे पद का लोभ नही है । 'मुक्तिबोध', 'जयवर्धन' मे उनके इन्ही विचारो की झलक स्पष्टत दृष्टिगत होती है । प्रजातात्रिक नीति पर बल देते हुए उन्होने स्व-पर के भेद को वृहद्तर होने से बचाने का प्रयास किया है । सबको अपना हक मिले यही उनका मूलादर्श है । उनकी दृष्टि मे पर को
१ जैनेन्द्र कुमार 'समय और हम', पृ० ६१६-२० ।