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जैनेन्द्र के अह सम्बन्धी विचार
१६५ जैनेन्द्र के सम्पूर्ण साहित्य मे अहता और परता का द्वन्द्व विद्यमान है, किन्तु इस द्वन्द्व मे परस्पर वैमनस्य नही बढता, वरन् अन्तर्मन को व्यथा की टीस सालती रहती है। उनके अधिकाश पात्र अहता से पीडित तथा व्यथित है। उनका दुखी मन निरन्तर सहज होने का मार्ग ढूढता रहता है । अभावग्रस्त मन सदैव पूर्णता की खोज मे विक्षिप्त रहता है। जैनेन्द्र के साहित्य का जो विषय सामान्यत उनकी आलोचना का विषय है तथा सत्य की उपेक्षा करके आदर्श और मर्यादा का डका पीटा जाता है, वह निरा दम्भ है । जैनेन्द्र ने जीवन के ऐसे सत्य को उधार कर रख दिया है जो प्रत्येक आदर्शवादी तथा सन्यासी और पडित के मन को भी कुरेदता रहता है । अन्तर यह है कि लोग उस कुरेद को पाप समझ कर पचा लेते है और अभिव्यक्त करने का साहस नही कर पाते, किन्तु जैनेन्द्र ने बडे साहस के साथ जीवन के महत्वपूर्ण सत्य को दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य मे प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । यह सत्य है कि उनके साहित्य मे स्त्री-पुरुष सम्बन्ध के वर्णन की अतिशयता है, किन्तु यह अतिशयता कामुकता (ऐन्द्रियकता) की परिचायक नही है। यह तो लेखक की विशिष्टता की ही परिचायक है । लेखक ने एक क्षेत्र मे आत्मसात् होकर मानव जीवन की सत्यता को स्वानुभव की पीठिका पर चित्रित किया है । शास्त्रीय ज्ञान मे खटकने वाली बात हो सकती है, किन्तु स्वानुभव तो सत्यता को ही अभिव्यक्त करने मे समर्थ है।
प्रत्येक व्यक्ति में अपने अस्तित्व का बोध होते ही रिक्तता की अनुभूति होने लगती है । 'मै क्यो' का प्रश्न प्रतिक्षण उसे सालता रहता है । इस प्रश्न के साथ ही उसमे यह भावना जाग्रत होती है कि 'मै उसमे होऊँ' 'वह मुझमे हो' । इस प्रकार दोनो एक-दूसरे मे खोकर अपने अस्तित्व को सार्थक करना चाहते है। एकाकी अह अथवा द्वैत सभव ही नही हो सकता। जैनेन्द्र की समस्त कहानियो मे समर्पण-भाव कूट-कूट कर भरा हुआ है। 'एकरात', 'ग्रामोफोन का रिकार्ड','प्रियव्रत', 'मित्र विद्याधर','गवार', 'रत्नप्रभा','टकराहट', 'रानी महामाया', 'दिन-रात-सवेरा' एव 'अविज्ञान' आदि कहानियो मे 'स्व'-'पर' द्वन्द्व तथा समर्पण की भावना स्पष्टत दृष्टिगत होती है । 'एक रात'' शीर्षक कहानी मे जैनेन्द्र ने जयराज और सुदर्शना के समर्पण का जो स्वरूप प्रस्तुत किया है उसे देखते हुए मन आर्द्र हो उठता है । वासना कोसो दूर चली जाती है। जयराज प्रतिभाशाली व्यक्ति है। उसे चारो ओर से मान-सम्मान की प्राप्ति होती है,
१ स० शिवनन्दनप्रसाद 'जैनेन्द्र प्रतिनिधि कहानिया', प्र० स०, दिल्ली,
१६६६, पृ० स० १०६ ।