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जैनेन्द्र के अह सम्बन्धी विचार
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प्रयत्नशील नही होता। भगवत्ता की अभिव्यक्ति व्यक्तित्व की वास्तविकता को अभिव्यक्त करने में समर्थ होती है। यही कारण है कि जैनेन्द्र अचेतन मन को पाप का पुज नही मानते और व्यक्ति की सुषुप्त चेतना को अभिव्यक्ति का अवसर देकर उसे सहज और स्वस्थ बनाने का प्रयास करते है। अहचेतना भगवत चेतना का ही प्रतिनिधित्व करती है। जैनेन्द्र ने अह को बहुत ही व्यापक और गूढ तथा मौलिक रूप मे स्वीकार किया है। उनकी अह सबधी मौलिक दृष्टि उनके साहित्य मे एक अद्भुत शक्ति का प्रसार करती है, जिससे जैनेन्द्र-साहित्य समस्त हिन्दी साहित्य मे अपना अभूतपूर्व स्थान रखने में समर्थ हो सका है। जैनेन्द्र की प्रक्रिया एकागी नही है। उनके साहित्य मे अचेतन अथवा भगवत्भाव की अभिव्यक्ति करने वाले अहतत्व को सर्वस्व मानकर अह सम्बन्धी विवेचन को सीमित नही किया गया है। अन्तस् भाव बहिर्मुखी होने के अनन्तर पुन अन्तर्मुखी होने के हेतु भी प्रयत्नशील रहता है । यह आत्मोन्मुखता ही जैनेन्द्र के साहित्य का परम आदर्श है। जैनेन्द्र अह की आत्मोन्मुखता मे ही भगवत प्राप्ति का मार्ग दर्शाते है । आत्मा परमात्मा का अश है। प्रात्मोन्मुख होकर ही जीव समस्त भेद-भाव से ऊपर उठकर स्वत्व विसर्जन में समर्थ हो सकता है। मनोविज्ञान द्वारा व्यक्ति के मन मे झाकने का प्रयास किया गया है, आत्मा मे नही । जैनेन्द्र की आस्था मन से भी परे आत्मा मे भगवत्ता के दर्शन करती है । फ्रायड ने चेतन अह को अचेतन मन का अश माना है। जैनेन्द्र अचेतन को सर्वेश्वर नही मानते । उनकी दृष्टि मे परम सत्य ईश्वर ही है और समग्र आत्मा ब्रह्म का अश है और आत्मा मे सक्रियता अहता के कारण ही प्राप्त होती है।
जैनेन्द्र की रचनामो मे अहं की स्थिति
उपरोक्त विवेचन के परिणामस्वरूप हम इस निष्कर्ष पर पहुचते है कि अहता और भगवत्ता का मिलन ही वह लक्ष्य है, जिस ओर उनकी अह सबधी समस्त प्रक्रिया उन्मुख होती है । जैनेन्द्र के जीवन और साहित्य का प्राण तत्व अह विसर्जन ही है। उनके साहित्य के रोम-रोम मे समर्पण-भाव ही ध्वनित होता हुअा दृष्टिगत होता है । उपन्यास, कहानी आदि उनकी समस्त रचनाओ मे द्वैत-अद्वैत की प्राप्ति की ओर उन्मुख है । इस प्रकार हमारे लिए यह जानना अनिवार्य हो जाता है कि वे कौन से मार्ग है, जिनके द्वारा जैनेन्द्र ने अहता का
१ 'भगवत्ता मे स्थिति ही है गति नही है । गति के लिए अहता का उदय हुआ
है।' –जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० ५६७ ।