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जैनेन्द्र का जोवन-दर्शन
प्रत्येक बिन्दु पर एक-दूसरे को काटते है। अतएव अह बिन्दु भी अनन्त हे । जैनेन्द्र के अनुसार अह बिन्दु का ब्रह्माण्ड से आकर्षण और अपकर्षण का सबध ही सम्भव हो सकता है। जैनेन्द्र की उपरोक्त मान्यता तथ्य को इतना सूक्ष्म बना देती है कि उसकी पकड सरलता से सम्भव नही हो सकती।' जैनेन्द्र के अनुसार कुल अस्तित्व अखण्ड है। कुछ मे जो खडितता की प्रतीति आई हे उसे हम दो आयामो मे विभक्त देखते है काल और आकाश । काल और आकाश के मध्य चेतन्य बिन्दु अह का स्वरूप लेता है । वह उन दो यथार्थों के मेल अथवा काट का ही बिन्दु हो सकता है । अह पार्थक्य पोषक है। काल और आकाश के मिलन-बिन्दु मे चेतना का प्रवाह होने से पृथक्ता अथवा 'मै' का बोध होता है । जैनेन्द्र के अनुसार समग्र सत्य मे किसी क्रिया की भी धारणा नही रखी जा सकती, किन्तु हर गति के लिए 'कही से' और 'कही को' बिन्दुनो की परिकल्पना आवश्यक है अर्थात् 'क्रिया' और 'चेतना' । वस्तुत जैनेन्द्र की उपरोक्त विचारधारा पूर्णत स्पष्ट तो नही हो पाती तथा पि उसमे इतना अवश्य स्पष्ट हो जाता है कि अह अशता का बोधक है। अखण्ड ब्रह्म जो कि क्रियाशून्य है, किन्तु 'अह' चेतना और क्रिया से युक्त होकर ही अपने पार्थक्य का बोध कर पाता है। मै 'ह' का बोधक है। मै के साथ ही साथ 'पर' की स्थिति भी अनिवार्य है। ऐसा नही हो सकता कि ससार मे केवल मेरा स्वत्व ही अस्तित्व रखता है। मेरे जैसे अनन्त अह की स्थिति ससार मे दृष्टिगत होती है। 'हू' और 'है' के बीच ही जगत की सारी प्रक्रिया घटित होती है। 'हूं' जगत की प्रक्रिया के सदर्भ मे ही सत्य है और सार्थक हे किन्तु शाश्वत सत्य जो है वही है, इतर सब मिथ्या है। 'है' ईश्वर का बोधक है, क्योकि वही एकमात्र सत्य है । जैनेन्द्र के अनुसार 'मै' का प्रारम्भ जन्म से और अत मृत्यु मे है। आयु 'मै' की होती है। ___'मै' का बिन्दु ही है जहा से चैतन्य का केन्द्र और क्रिया प्रारम्भ हुई । इस दृष्टि से जो 'स्व' निज अथवा अह का बिन्दु है वह अचिन्तय सार्थक हो जाता है । ग्रह की अमिष्टता और अवभीष्टता वहा से शुरू होती है जहा चेतन उस केन्द्र के चहु ओर बढने के बजाय वही केन्द्रित हो जाती है। इस प्रकार अह का केन्द्र विराट की ओर बढने की बजाय अपने मे सिमट कर और इतर से
१ जैनेन्द्र से साक्षात्कार करने के पूर्व 'अह क्रास प्वाइण्ट' की धारणा में अह
गत जडता का ही बोध होता था। उसके मूल मे निहित चैतन्य प्रक्रिया का ज्ञान नहीं हो सका था, किन्तु उनसे विचार-विमर्श करने पर 'अह' के स्वरूप को समझने मे सहायता मिली । (२० ५-७१)।