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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
प्रेम और अभेद मूलक है। जैनेन्द्र के अनुसार अहगत अनेकता अतिम सत्य नही है। आत्ममूलक अभेदत्व की प्राप्ति ही जीव (अहता) का परम लक्ष्य है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे एक 'परम ब्रह्म' का ही प्रकाश समानरूप से दीप्त होता है। अत बाह्य रूप मे जो भेद-भाव दृष्टिगत होता है, वह अतस् आत्मा के ऐक्य मे विलीन हो जाता है। जैनेन्द्र के जीवन और साहित्य का आदर्श अभेदत्व की प्राप्ति है। भेद अथवा द्वेत भाव जागतिक सत्य है। जैनेन्द्र ने अह के आत्मोन्मुख होने को ही परम आदर्श माना है। जैनेन्द्र के अनुसार समाज व देश में व्याप्त समस्त मतवाद आत्मोन्मुख होकर अस्तित्वहीन हो जाते है । जैनेन्द्र-साहित्य मे अह को केवल द्वार रूप मे ही स्वीकार किया गया है अतएव यदि अह रूपी द्वार पर ही स्थिर रहने वाला व्यक्ति आत्मरूपी लक्ष्य की प्राप्ति के मार्ग से विमुख हो जाता है और उसके लिए मोक्ष की प्राप्ति कठिन हो जाती है।
जैनेन्द्र की आत्म सम्बन्धी धारणा पर शकर और साख्य दर्शन का प्रभाव दृष्टिगत होता है। यद्यपि यह सत्य है कि उन्होने सप्रयास किसी भी दर्शन के सिद्धान्तो को ग्रहण नही किया है तथापि भारतीय दर्शन की आत्मा की सत्यता से भी तटस्थ नही है । शकर के अनुसार प्रात्मा कर्म से स्वतन्त्र है, शरीर तथा मन के बन्धन से भी स्वतन्त्र है। आत्मा और शरीर एक नही है। अह भाव शरीर मे है। शकर उस आत्मा मे जो समस्त अनुभव मे उपलक्षित होती है और उस आत्मा मे जो अन्तदृष्टि के द्वारा जाना गया एक निश्चित तथ्य है, एक आध्यात्मिक विषयी 'मैं' और मनोवैज्ञानिक विषयी 'मुझको' मे भेद करते है।' डा० राधाकृष्णन् के अनुसार शकर की दृष्टि मे अह प्रत्यय का विषय विशुद्ध आत्मा नही है, जो साक्षी है वरन् वह है जो क्रियाशील है, कर्ता तथा फलोपभोग करने वाला जीवात्मा है, जिसमे विषयनिष्ठ गुणो का समावेश है, ऐसी आत्मा विषय है। साख्य दर्शन मे पुरुष को नित्य तथा आत्मरूप माना गया है । देहस्थ क्रियानो का कर्ता पुरुष नही है। पुरुष निष्क्रिय है । साख्य के अनुसार जीव प्राकृतिक जगत का अश है। जीवन और आत्मा के सम्बन्ध मे शकर और वेदान्त मे बहुत साम्य दृष्टिगत होता है। उनमे मूल भेद प्राध्यात्मिक दृष्टि के कारण ही उत्पन्न होता है । जीव और आत्मा का स्वरूप तो जैनेन्द्र के साहित्य मे उपरोक्त रूप मे दृष्टिगत होता है, किन्तु साख्य दर्शन मे पुरुष परब्रह्म का अश रूप नही है, जब कि जैनेन्द्र ने वेदान्त के अशरूप आत्मतत्व को ही स्वीकार किया है। साख्य मे प्रकृति और पुरुष के मिलन से विक्षोभ
१ डा० राधाकृष्णन् 'इण्डियन फिलासफी', पृ० स० ४७६ । २ डा० राधाकृष्णन् 'इण्डियन फिलासफी', पृ० स० ४७६ ।