________________
१४८
जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
'अह' शब्द की सामान्य विवेचना करने पर प्रश्न उठता है कि 'अह' मात्र शरीर बोधक है अथवा मन से सम्बद्ध है या व्यक्ति की सम्पूर्णता से सम्बन्धित है । सामान्यत 'अह' भावबोधक है, किन्तु अहभाव शरीर की सापेक्षता मे ही सम्भव हो सकता है। शरीर के अभाव मे अह-चेतना का प्रश्न ही नही उठता। अतएव अह भाव के लिए शरीर के साथ चेतना अनिवार्य है । किन्तु शरीर और चेतना (कान्शेसनैस) स्वय मे प्राण तत्व (आत्मा) के अभाव मे पर्याप्त नही है । अात्महीन शरीर मे चेतना अविद्यमान रहती है । जैनेन्द्र के अनुसार शव के नेत्रो मे भी बिम्ब बनते है, किन्तु उसे उसका बोध नही होता है।' अतएव 'अह' का पूर्ण और वास्तविक ज्ञान समग्रता मे ही सम्भव हो सकता है । इस सम्बन्ध मे विचारको ने विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किये है ।
पाश्चात्य दर्शन
पाश्चात्य दार्शनिको ने अह अथवा सेल्फ के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किए है । श्रीमती राय ने अपने शोध-प्रबन्ध मे पाश्चात्य दार्शनिको के विचारो की पूर्ण विवेचना की है। अरस्तू ने अह को पारमार्थिक तत्व के रूप मे स्वीकार किया है। यह तत्व शरीर में रहते हुए भी उससे असम्बद्ध रहता है। डेकार्ट ने सर्वप्रथम इस तर्क की ही पुष्टि की है कि 'स्व' अथवा 'मै' का अस्तित्व है या नही, क्योकि पाश्चात्य दार्शनिको मे प्राय अह के अस्तित्व के सम्बन्ध मे सन्देह उत्पन्न होता रहा है। डेकार्ट महोदय ने स्व को विचारक के रूप मे स्वीकार किया है । उसके अनुसार 'मै विचार करता हूँ इसलिए मैं हैं।' इस प्रकार उन्होने अह को चिन्तनशील तत्व के रूप मे स्वीकार किया है । लाक ने 'स्व' को प्रत्यय के आधार पर स्वीकार किया है। डेकार्ट का चिन्तनशील 'स्व' बुद्धिपरक है, उसमे तर्क के द्वारा 'मै' की सिद्धि की गयी है, किन्तु जैनेन्द्र का अह अथवा मै अध्यात्मपरक है तथा लाक का प्रत्ययवादी दृष्टिकोण 'अह की आत्मता को सिद्ध करने में असमर्थ होता है । जैनेन्द्र के विचारो पर प्रसिद्ध दार्शनिक वर्कले के विचारो की झलक देखी जा सकती है। जैनेन्द्र ने 'अह' को अश के रूप मे स्वीकार किया है अतएव वह आत्मता से निरपेक्ष पूर्णत वस्तुसत्य नहीं बन सकता । इस प्रकार वह अनुभववादी विचार-धारा के आधार पर ही सिद्ध किया जा सकता है। वर्कले के अनुसार भी प्रत्यय के रूप में अह की
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', २ कमलाराय 'कान्सेप्ट आफ सेल्फ', प्र० स०, कलकत्ता, १९६६,
पृ० स० ८ ।