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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
पति की आख खोलने में समर्थ होती है और उसका पति अन्त मे यह स्वीकार करता है--कि 'मृत्यु के द्वार मे से ही सत्य को प्राप्त करना होगा।' 'जीनामरना' शीर्षक कहानी मे भी इसी तथ्य की सत्यता पर प्रकाश डाला गया है कि मृत्यु के बाद शव की क्या स्थिति होती है । लेखक ने ऐसी स्थिति का चित्रण किया है जो मर्म को झकझोर देने में सहायक होती है। अस्पताल में गर्मी मे लाशे अधिक हो जाने के कारण बाक्स मे भर दिए जाते है, आलमारी भी इसी कार्य के हेतु प्रयुक्त होती है । 'भर दिये जाते है' सुनकर सहसा शरीर काप उठता है, किन्तु सत्य यही है । यह जैनेन्द्र के अन्तस् की गहनता का ही परिचायक है कि उन्होने जीवन के ऐसे यथार्थ सत्यो को स्पष्टत अभिव्यक्ति प्रदान की है। एक ओर जीवन की रगरेलिया दूसरी और मौत का कर सत्य'", · दोनो के मध्य व्यक्ति मन स्थितियो को व्यक्त करते हुए जैनेन्द्र ने बताया है कि व्यक्ति मौत की सत्यता की चाहे कितनी ही उपेक्षा करे, किन्तु वह सदैव जीवन के समक्ष एक व्यग्य-चिन्ह-सी दृष्टिगत होती है।
'तोलए' शीर्षक कहानी मे भी जैनेन्द्र ने जीवन और मृत्यु के गम्भीर सत्य का विवेचन किया है। मृत्यु की ओर पहुचता हुआ व्यक्ति जीवित व्यक्तियो के के लिए अर्थशून्य हो जाता है । जीवन मे उसकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है। मानव जीवन मे वही वस्तु यह व्यक्ति ग्राह्य है, जो कि उपयोगी है-अन्यथा प्राणयुक्त व्यक्ति भी तुच्छ पदार्थ की भाति इस लीला का अन्त करने के लिए विवश होता है, क्योकि मरने वाले को मरना तो है ही, परन्तु उसके कारण गन्दगी भी फैलती है और उसकी दिन-रात की खो-खो भी परेशान करती है। इस कहानी मे भी लेखक ने क्लब के भोग-विलासमय जीवन के समानान्तर मौत की सत्यता का चित्रण किया है । उनके अनुसार 'मरना जीवन को राह देता है। हम कही बन गये होते है । काम आ चुके होते है। ससार मे कुछ
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१ जैनेन्द्र की कहानिया (दर्शन की राह), भाग ७, तृ० स० ११८, १६६३ ।
जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया' भाग १०, 'जीना-मरना' प्र० १३६ । ३ 'वह गुस्सा सिर्फ इस पर था कि मौत है। मानो वह जिन्दगी के आगे व्यग
चिन्ह है । उसको सामने रखकर जिया कैसे जाए ? पर हमेशा पीठ पीछे भी उसे कैसे जिया जाय।
-जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', पृ० १३२ । ४ जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ७, १९६३, दिल्ली, पृ० ११६ । ५ 'जैसे एक दिन होकर और कुछ दिन रहकर हम बिसर जाते है कि यह
होना रहना काल का ही खेल था उस खेल के लिए अब हमारा न होना सगत हो गया है।'
--जैनेन्द्रकुमार 'इतस्तत', पृ० १०६ ।