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जैनेन्द्र की दृष्टि में भाग्य, कर्म-परम्परा एव मृत्यु
१२७ के गुण-दोप युक्त कर्म समष्टि में व्याप्त हो जाते है ।'' पूर्व जन्म के कर्मफल तथा सस्कार व्यवित से छूटकर उसी प्रकार समष्टि मे विलीन हो जाते है, जिस प्रकार तालाब मे उठी लहर सारे सरोवर में व्याप्त हो जाती है। उसका पार्थक्य मिट जाता है । वस्तुत व्यक्ति के सस्कार जाति और जाति के समस्त ब्रह्माण्ड का अग हो जाते है। व्यक्ति के सब कार्यो के सस्कार समष्टि को गोरवान्वित करते है। दूसरी ओर उसके दुष्कर्म स्वय तक ही सीमित नही रहते, उसमे सामाजिक वातावरण भी दूषित हो जाता है। अत व्यक्ति के कर्म समाज को हानि पहुचाने के लिए भी उत्तरदायी होते है। इस प्रकार व्यक्ति का कर्म के प्रति दायित्व अधिक बढ जाता है।
जैनेन्द्र की दृष्टि मे जन्म और मृत्यु के अनवरत घटनाक्रम से ही समष्टि का जीवन अभिव्यक्ति पाता है। समष्टि का जीवन ही परम लक्ष्य है, व्यक्ति के जन्म-मृत्यु की कडी उसमे साधन रूप है। सस्कारो की ग्रधि समष्टि मे बिखर जाने के लिए ही होती है। पुनर्जन्म से इसका कोई सम्बन्ध नही होता। इस सम्बन्ध मे जैनेन्द्र के सस्कारो की तुलना खजूर के वृक्ष से करते है। पर प्रतिवर्ष पडने वाले वलय से करते है । वृक्ष के टूट जाने पर सम्भव हो सकता है कि वृक्ष की गुठली जमीन पर गिरकर किसी नये वृक्ष का बीज बन जाए, किन्तु उन वलयो का कोई महत्व नहीं होता। वे उस गुठली से उत्पन्न होने वाले पेड से कोई सम्बन्ध नही स्थापित कर सकते । ठीक इसी प्रकार व्यक्ति से पूर्वजन्म के सस्कार पुनर्जन्म की स्थिति के निर्धारण मे सहायक नहीं होते।
सच्चिदानन्द परमात्मा अखण्ड है, पूर्ण है, और व्यक्ति अपूर्ण तथा अतृप्त है । मृत्यु जीवन का अन्त नही, वरन् प्रगति का द्वार है । अपनी अतृप्त आकाक्षाओ, वासनामो की पूर्ति के लिए व्यक्ति बार-बार जन्म लेता है। जैनेन्द्र सस्कारो का एक जन्म से दूसरे जन्म मे सक्रमण स्वीकार नही करते, इसलिए
१ 'जन्म-मरण व्यक्ति भोगता है, लेकिन इस भोग के द्वारा मानो वह समष्टि लीला को ही व्यक्त कर रहा होता है।'
--जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ०स० ५६ । २, जरा सी ककरी डालिए तो सरोवर के तल पर सिहरन होती है, जो छोर
तक पहुचती है और फिर शान्त हो जाती है। इसी तरह सच पूछिए तो प्राप्त सस्कार मुझ तक नहीं रहता, मानो विश्व-चेतना मे समाकर वही पर्यवसान पाता है ।'
---जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ०स० ५६६ । ३ जैनेन्द्रकुमार . 'समय और हम', पृ०स० ५६७ ।