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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
पुनर्जन्म के सम्बन्ध मे उल्लेख किया है । 'पुनर्जन्म' शब्द से ऐसा प्रतीत होता है कि किसी विशिष्ट व्यक्ति का ही फिर से जन्म होता है । पुनर्जन्म शब्द व्यक्ति सापेक्ष प्रतीत होता है, किन्तु जैनेन्द्र ने सम्भवत उसे कर्म की सापेक्षता से ग्रहण किया है । उन्होने व्यक्ति से इतर जन्म की परम्परा को स्वीकार किया है । उनके अनुसार जन्म के बाद मृत्यु और फिर जन्म का क्रम सतत् चलता है, किन्तु यह नही कहा जा सकता कि यह परम्परा विशिष्ट व्यक्तियो के सन्दर्भ मे चल रही है । तथा वलय रूप सस्कारो का महत्व के लिए कोई महत्व नही रह जाता है । यह सत्य है कि इस सिद्धान्त मे जैनेन्द्र ने व्यक्ति को स्वार्थ से परमार्थ की ओर उन्मुख होने का सन्देश दिया है, किन्तु व्यक्ति की दृष्टि मे उसका महत्व निशेष हो जाता है । ससार कर्म और भाग्य की आस्था पर चल रहा है । जन्म-जन्मान्तर मे एक-दूसरे से बध कर ही समग्रता का परिचय दे सकते है | अन्यथा विकास और प्रगति की समस्या फिर एक प्रश्न चिन्ह लगा देती है ।
सामान्यत प्रत्येक व्यक्ति का ऐसा विश्वास है कि जन्म-जन्मातर द्वारा व्यक्ति अपने व्यक्तित्व मे परिमार्जन उत्पन्न कर सकता है । वह अपनी अपूर्ण अभीप्सा की पूर्ति के हेतु जन्म-जन्मान्तर तक प्रयत्न करता रहता है । कामना ही जन्म का मूल आधार है । यदि व्यक्ति के कर्म पूर्व अथवा पुनर्जन्म
सम्बन्धित नही है तो कामना की पूर्ति का प्रश्न ही नही उठता । सामान्यत जीवन मे विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न पूर्वजन्म के सचित कर्मों अर्थात् भाग्य के अनुसार ही सम्भव होता है ।
प्रतिभा अध्यवसायमूलक
जैनेन्द्र ने प्रतिभा के सम्बन्ध मे अपनी मौलिक दृष्टि प्रदान की है । उनके अनुसार 'प्रतिभा' व्यक्तिगत अध्यवसाय और अभ्यास का परिणाम है । पूर्व जन्म के सचित गुरणो के आधार पर प्रतिभा को स्वीकार करना व्यक्ति को निष्क्रिय नाना है । पूर्वजन्म का पुनर्जन्म पर कोई प्रभाव नही पडता ।' 'प्रतिभा को मे द्वन्द्वज मानता हू अर्थात गहरे मे उसका आधार प्रभाव है । प्रतिभाशाली केला हो जाता है और अन्य के साथ उसका सम्बन्ध समता और समवेदना का कम बन सकता है ।" विश्व मे सृष्टि का क्रम तो अनन्तकाल से चला आ रहा है । इस क्रम का खण्डन सम्भव नही है । जैनेन्द्र के अनुसार यदि यह
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ६७ ॥
२ जैनेन्द्रकुमार, 'समय, समस्या और समाधान', पृ० २३३ ।