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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
कहते है कि, 'क्या प्रमाण है कि पेड का यह पत्ता वही है जो पिछली पतझड मे वृक्ष की उसी शाखा की किसी टहनी से टूटा था । जैनेन्द्र पूर्वजन्म को इसी रूप मे समझ पाते है। इसके अतिरिक्त उनके सम्पूर्ण जीवन-दर्शन मे अह के विगलन की भावना ही दृष्टिगत होती है, अत वे व्यक्तिमत्ता को विशेष महत्व न देकर उसे समष्टि के जीवन का साधन ही मानते है। जैनेन्द्र का पुनर्जन्म के सम्बन्ध मे अपना अभिमत है । इस सम्बन्ध मे वे अपने विश्वास पर ही अपनी मान्यताप्रो का निर्धारण करते है। भारतीय दर्शन मे पुनर्जन्म की परम्परा मे पूर्वजन्म की सम्बद्वता स्वीकार की गई है। पुराणो मे अनेको ऐसी कथाए मिलती है, जिनके द्वारा इस तथ्य की पुष्टि होती है तथा अाधुनिक युग मे भी यदा-कदा ऐसी घटनाए सुनायी पडती है, जिनसे पुनर्जन्म की सत्यता का प्रमाण मिलता है किन्तु जैनेन्द्र दो-एक घटनाओ को सत्य की सिद्धि के लिए पर्याप्त नही समझते ।' उनकी दृष्टि मे जो कुछ है सब सत्य है, अथवा सत्य मे ही समाहित है। अतएव कुछ विशिष्ट घटनाए सत्य को प्रमाणित करने के लिए घटित नही होती। ___सामान्यत हमारी यह मान्यता है कि पूर्वजन्म के कर्मों के फलस्वरूप ही हम सुख अथवा दुख भोगते है और पुनर्जन्म भी इस (वर्तमान) जन्म के कार्यो के अनुसार ही होता है, किन्तु जैनेन्द्र की ऐसी मान्यता है कि फल और कर्म विच्छिन्न नही हो सकते कि इस जन्म के कर्म अगले जन्म मे फल दे । 'कर्म
और फल की कडी एकसूत्रता मे ही देखी जा सकती है। उनका विश्वास है कि जिस प्रकार सरोवर मे छोटी-सी ककरी भी डालिए तो लहर पैदा होती है। वह दूसरी को फिर तीसरी को लहराती हुई तब तक नही रुकती जब तक किनारा नही पा लेती। इसी तरह माना यह भी जा सकता है कि कर्ता के रूप मे जिस कर्म को अपनाया है, उसका प्रभाव ब्रह्माण्ड तक फैले बिना नही रहता होगा।
इस प्रकार जैनेन्द्र का दृढ विश्वास है कि मृत्यु के अनन्तर व्यक्ति का कर्म अकाल का हो जाता है अर्थात् शून्य मे व्याप्त हो जाता है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे हमारी यह मान्यता तर्कसंगत नही है कि हम कर्म इस जन्म मे करते है और
१ 'समय और हम' (प्राक्कथन--वीरेन्द्रकुमार), पृ० ३६ । २ 'सत्य को सिद्ध करने के लिए क्या एक ही घटना आवश्यक है । सब कुछ क्या सत्य को ही नही सिद्ध कर रहा है।'
--जैनेन्द्र के साक्षात्कार के अवसर पर उपलब्ध विचार । ३ 'समय, समस्या और सिद्धात',