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जैनेन्द्र की दृष्टि मे भाग्य, कर्म-परम्परा एवं मृत्यु
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उसका फल अगले जन्म मे मिलता है । उनकी दृष्टि मे कर्म और फल मे ऐसी सम्बद्धता देखना उचित नही है । उनका विश्वास है कि मृत्यु के बाद क्या होता है, कोई देखने नही जाता ।
अपने विचारो को वे घड़े के उदाहरणो द्वारा स्पष्ट करते हुए कहते है कि 'घडा टूट जाता है तो प्रश्न मन मे नही उठता कि फिर वह क्या पर्याय ग्रहण करता है । उनकी दृष्टि में जिस प्रकार घट का घटत्व हमारे लिए सामयिक प्रयोजन से अधिक महत्व नही रखता है, इसलिए उसकी समाप्ति मान लेने पर
कठिनाई नही होती । व्यक्ति के व्यक्तित्व मे भी इसी तरह सामयिक संघटना माना जा सके तो पुनर्जन्म आदि की कल्पना के लिए कही अवकाश नही रह जाता है । "
वस्तुत जैनेन्द्र का उपरोक्त अभिमत तर्कसगत प्रतीत होते हुए भी सापेक्षिक महत्व ही रखता है, क्योकि वे स्वय ही स्वीकार करते है कि इस जीवन के पार क्या होता है, कोई नही जानता । इस सम्बन्ध मे हम केवल अनुमान का ही सहारा ले सकते है, उसे निरपेक्ष सत्य नही मान सकते, क्योकि हमारी अपनी संस्कारगत मान्यता पुनर्जन्म की पूर्वजन्म से सम्बद्धता को स्वीकार करती है । वर्तमान मे हम इस विश्वास को लेकर ही जीते है कि जो जैसा करेगा उसका फल उसे कभी-न-कभी ( किसी भी जन्म मे ) मिलेगा ।
परलोक
जैनेन्द्र के पात्रो के मन में सदैव यह जानने की जिज्ञासा रहती है कि मृत्यु के बाद क्या होता है । 'कल्याणी' मे कल्याणी के समक्ष ऐसी ही विषम परि स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जब वह जानने के लिए उत्सुक होती है, कि मरने के बाद क्या होता है ? कल्याणी के मन में आत्मघात के कारण प्रेतयोनि के अस्तित्व के सम्बन्ध मे विविध जिज्ञासाए उत्पन्न होती है । मृत्यु के बाद आत्मा तुरन्त दूसरे शरीर मे प्रवेश करती है या कुछ काल प्रेतयोनि मे भी उसे रहना पडता है ।
१ जैनेन्द्र कुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त'
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जैनेन्द्रकुमार 'कल्याणी', दिल्ली, १९५६,
'मरता तो आदमी जरूर है, हर कोई मरता है, लेकिन मरने के बाद क्या होता है । मरकर आदमी की क्या गति होती है- क्या इस बारे मे किसी को कुछ भी पता नही है ? पुनर्जन्म क्या वह होता है ?"
रहना
'मरकर उसका जन्म तुरन्त हो जाता है या कुछ काल प्रेत योनि पडता है ? श्रात्मा तो नही मरती न ? और मौत भी दो तरह की होती है - स्वाभाविक और अकाल मौत । कोई अपघात कर ले या कोई मार डाला जाये तो श्राप क्या समझते है कि उसकी वैसी ही गति होगी, जैसी प्राकृतिक मौत वाले की ?' 'कल्याणी', पृ० ८० ।