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जैनेन्द्र की दृष्टि से भाग्य, कर्म-परम्परा एव मृत्यु
क्रम टूट जाय तो जीव-विज्ञान, प्रारण विज्ञान निरर्थक सिद्ध होगे । आनुवशिकता की श्रृंखला सतत् चलती रहती है। उनकी दृष्टि मे प्रानुवशिकता के कारण ही बच्चा अपने माता-पिता की सूरत तथा उनके गुणो को लेकर जन्म लेता है । इस प्रकार उसका जीवन स्वय मे एक विश्वखलित कडी नही है, वरन् उसका व्यक्तित्व माता-पिता के रज-वीर्य के गुरणो का सक्रमित रूप है । वस्तुत व्यक्ति का जन्म नवीनतम रूप से होता है, किन्तु उसकी चिद्गुणता का नही ।" वस्तु जैनेन्द्र की दृष्टि मे व्यक्ति की चेतना का प्रारम्भ किसी जन्म- विशेष से नही होता । चेतना अनन्तवादी है, केवल व्यक्तिमत्ता या निजता काल मे सीमित है, किन्तु वह भी मृत्यु के अनन्तर आत्मरूप मे अपरिमित, असीम ब्रह्माण्ड मे लीन हो जाती है ।
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जीव- वैज्ञानिक दृष्टि
जैनेन्द्र के उपरोक्त अनुवंशिकता के विचारो पर जीव- वैज्ञानिक और विकासवादियो का प्रभाव दृष्टिगत होता है । वैज्ञानिको ने वश-परम्परा (ला ग्राफ हेरिडिटी) सिद्धात के द्वारा पुनर्जन्म की सत्यता को प्रमाणित किया है, किन्तु वैज्ञानिको की दृष्टि वर्तमान को लेकर विश्लेषण की ओर उन्मुख होती है । अतएव वैज्ञानिक विचार-धारा पूर्णत सगत ही है ।
वश-परम्परागत गुणो की समानता स्वीकार करने पर उसमे भी कुछ अपवाद दृष्टिगत होते है । प्राय प्रतिभाशाली माता - पिता की सन्ताने अधिक कुशाग्र तथा प्रतिभा सम्पन्न नही भी होती । किन्तु जैनेन्द्र किसी स्थिति मे प्रतिभा को अलौकिक शक्ति की देन न जानकर साधना और अध्यवसाय का परिणाम ही मानते है ।
क्षतिपूर्ति
जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्तिगत साधना के अतिरिक्त क्षतिपूर्ति का सिद्धान्त भी व्यक्ति को विशिष्ट क्षेत्र मे विशिष्ट प्रतिभा प्रदान करने में सहायक होता है । उन धारणा है कि किसी अग की अक्षमता शरीर के दूसरे अग की शक्ति को अधिक सशक्त और सम्पन्न बना देती है । शरीर से हीन व्यक्ति प्राय बुद्धि से विलक्षरण देखे जाते है ।' ईश्वर अपनी ओर से किसी को मूर्ख अथवा प्रतिभासम्पन्न
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० ६६ ।
२. जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० ६८ ।