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जैनेन्द्र की दृष्टि मे भाग्य, कर्म-परम्परा एवं मृत्यु
१२३ भाग्य और पुरुषार्थ सहयोगी ___जैनेन्द्र के अनुसार पुरुषार्थ का अर्थ केवल शुभ करना ही नही है । वरन् शुभ के साथ ही ईश्वर के सहयोग को भी स्वीकार करना आवश्यक है। जैनेन्द्र की मान्यता है कि 'जब पुरुष अपने अह से विमुक्त होता है, तभी भाग्य से सयुक्त होता हे ।' भाग्य का सहारा लेकर कर्म करने से व्यक्ति को अदम्य उत्साह
और शक्ति प्राप्त होती है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे ऐसा व्यक्ति पशु तुल्य है जो केवल कर्म और पुरुषार्थ पर विश्वास करता है तथा भाग्य को उपेक्षणीय समझता है। पशु के कार्य मे त्वरा अधिक होती है । जैनेन्द्र के अनुसार यदि मनुष्य पशु से महान है तो इसी दृष्टि से कि उसमे स्नेह और सहयोग की भावना है। कोरा पुरुषार्थ अहता को फुलाने मे सहायक होता है जैसे कि कोरी भाग्यवादिता अकर्मण्यता की पोषक है । जैनेन्द्र के अनुसार पुरुषार्थ का तात्पर्य केवल सत्रियता से है, तत्व और सत्य से नही है। पुरुषार्थ की उपयोगिता भी सक्रियता के ही साथ है, शेष के साथ सहज स्वीकारता का सम्बन्ध है और उसका द्योतक भाग्य है। जहा तक सक्रियता प्रयत्नशील है, वही तक पुरुषार्थ की व्याप्ति है । जैनेन्द्र के अनुसार समस्त के पुरुषार्थ का समवेत रूप मान्य है। उनकी दृष्टि में राष्ट्रीय पुरुषार्थ भाग्य की सापेक्षता मे ही ग्राह्य हो सकता है । भाग्य वह पुरुषार्थ है जिसमे प्रत्येक तत्व भाग्य होता और जो व्यक्ति का नही है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे बौद्धिक स्तर पर ही भाग्य और कर्म से कार्यकारण के रूप समझ सकते है। वस्तुगत सत्य से इसका कोई सम्बन्ध नही है । ___जैनेन्द्र के साहित्य मे भाग्य की स्थिति कर्म के मध्य ही स्वीकार की गई है । जैनेन्द्र की मान्यता है कि 'भाग्य के प्रति अभ्यतर मे अर्पित होकर पुरुष जो भी पुरुषार्थ करता है, वह उसे उत्तरोत्तर मुक्त और समग्रही करता जाता है । भाग्य के प्रति अवज्ञा रखना अपने से शेष के प्रति अवज्ञाशील होना है ।
जैनेन्द्र पुरुषार्थ मे परमार्थ का योग अनिवार्य मानते है । यदि अर्थ परमार्थ मे नही जुडता तो वह सहज स्वीकार्य नही हो सकता। व्यक्ति के कर्मों की इति प्राप्त कर्तव्य मे ही है । जैनेन्द्र के अनुसार भाग्य ईश्वर का आदेश है। ईश्वर व्यक्ति के विपरीत कोई कार्य नही कर सकता । उन्होने सूर्योदय का दृष्टान्त देकर स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार सूर्य के सामने आने पर हम उसे सूर्योदय कहते है, किन्तु पीछे चले जाने पर सूर्य का अस्तित्व समाप्त नही होता, वरन् वह हमे दृष्टिगत नही होता । व्यक्ति की क्षमता असीम है। उसकी पहुच
१ जैनेन्द्रकुमार 'परिप्रेक्ष', पृ० स० ११४ । २ जैनेन्द्रकुमार • 'परिप्रेक्ष', पृ० स० ११८ ।