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परिच्छेद–४
जैनेन्द्र की दृष्टि में भाग्य, कर्म-परम्परा एवं मृत्यु
भाग्यवादी जैनेन्द्र
जैनेन्द्र परम आस्तिक, विचारक और लेखक है। उनकी अटूट ईश्वरीय आस्था की गहरी छाप हमे उनके साहित्य मे दृष्टिगत होती है। मनुष्य रूपी सूक्ष्म यन्त्र का निर्माता ईश्वर है । अतएव ईश्वर ही अपनी स्वेच्छा से यत्र की गति को परिचालित करता है। जैनेन्द्र के अनुसार जीवन के सम्बन्ध मे व्यक्ति का समस्त मन्तव्य समुद्र के तट पर कौडियो से खेलने वाले बालको के निर्णय की भाति है। फिर भी बालको को (मनुष्य का) मस्तक मिल गया है और हृदय भी मिल गया है । वे दोनो निष्क्रिय होकर तो रहते नही। इसी से जो जानने के लिए नहीं है, उसे जानने की चेष्टा चली है।' वस्तुत जैनेन्द्र की दृष्टि मे मनुष्य निर्जीव, जड, यत्र नही है। उसमे विवेक, बुद्धि तथा पुरुषार्थ है। अतएव विधाता व्यक्ति की गति का अवरोधक नही है, वरन् सहयोगी है।
जैनेन्द्र के साहित्य मे कहानी और उपन्यास के पात्रो की अडिग ईश्वरास्था को देखते हुए ऐसा आभास होता है कि उनकी दृष्टि मे कर्ता-धर्ता एकमात्र परब्रह्म ईश्वर ही है। ईश्वर की अनन्त शक्ति के समक्ष मनुष्य बहुत ही तुच्छ है । अतएव जैनेन्द्र के पात्र अत्यधिक भाग्यवादी हो गए है। उनके जीवन का उतार-चढाव भाग्य की परिधि मे ही सम्भव हो सका है।
१ जैनेन्द्रकुमार 'सुखदा', प्र० स०, १६५२, दिल्ली, पृ० स० १८ ।