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जैनेन्द्र की दृष्टि मे भाग्य, कर्म-परम्परा एव मृत्यु
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ईश्वर को ही सर्वोपरि मानते है । यदि ईश्वरेच्छा न हो तो व्यक्ति कुछ भी नही कर सकता । ईश्वरीय-आस्था मे व्यक्ति के अह का विगलन हो जाता है। अह का शून्य भाव ब्रह्म को ही सर्वोपरि प्रमाणित करता है । व्यक्ति केवल कर्ता है, किन्तु कर्म का फल भाग्याधारित है। ऐसी स्थिति मे व्यक्ति कर्म करता हुआ भी निराश नहीं होता, क्योकि वह वर्तमान तक ही परिमित है, भविष्य मे उसकी पहुच नहीं है।
जैनेन्द्र के अनुसार भाग्य का लेखा अर्थात् विधाता का नियम ससार मे व्यवस्था उत्पन्न करने का प्रसाधन है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे भाग्य का नियम अतर्य नहीं है।' ईश्वर भी मनमानी पक्षपात नहीं करता । व्यक्ति अपने ही कर्मो का फल भोगता है । भाग्य व्यक्ति के सचित कर्मो का ही अभिव्यक्त रूप है । पूर्वजन्म के सम्बन्ध मे कोई नही जानता, किन्तु वर्तमान जीवन मे व्यक्तिव्यक्ति के मध्य दृष्टिगत होने वाले वैषम्य को देखकर, यही कल्पना की जाती है कि व्यक्ति के कर्म-फल के कारण ही परस्पर गरीबी-अमीरी, सुखी-दुखी होने का वैभिन्न्य दिखाई देता है, किन्तु भाग्य व्यक्ति के ही पूर्वजन्मो के कर्मो से बनता है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि भाग्य कोरी भावना का प्रतीक है, अधविश्वारा है, वरन् भाग्य का परिणाम तार्किक रूप से स्वीकार किया जा सकता है। जैनेन्द्र भाग्य को कर्मो के आधार पर तो स्वीकार करते है, किन्तु उसे पूर्वजन्म के सचित कर्मों का परिणाम नही मानते ।
भाग्य से विद्रोह नहीं ___ जैनेन्द्र के जीवन और साहित्य का प्रमुख आदर्श ईश्वरोन्मुखता है। उनकी दृष्टि मे भाग्य पर आश्रित रहने वाला व्यक्ति कर्म की उपेक्षा नही करता । कर्म उसका इष्ट है, किन्तु फल की प्राप्ति न होने पर वह भगवान को दोष नहीं देता, वरन् दुख मे भी आत्मानन्द की प्राप्ति करता है। जैनेन्द्र की अधिकाश रचनायो के पात्र भाग्य के कुचक्र पर उत्तेजित और ऋद्ध नहीं होते और न ही भाग्य से लडना श्रेयष्कर समझते है । 'त्यागपत्र' मे प्रमोद (जज) अपनी बुआ की स्थिति पर बहुत दुखी होता है, किन्तु बुअा को उस राह से मोड नही पाता। वह जानता है कि जो कुछ भगवान करता है, सोच-समझकर ही करता है। ईश्वरेच्छा का निषेध करके व्यक्ति आत्मा के सन्तोप से भी हाथ धो बैठता है। इसीलिए
१. भाग्य का तर्क यदि कठोर है तो ऐसा अकारण नही है 'यहा जो जैसा
करता है वैसा ही भरता है।' --जैनेन्द्र की कहानिया (वह रानी), दिल्ली, १९६४, प्र०स०, पृ०स० ४७ ।