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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन बह जाने दे तो ऐसे वह मुक्ति की ओर बढता है । अपनी ओर लेने और सिमटने मे बन्धन का बोध होता है ।१ । ___ जैनेन्द्र के अनुसार मोक्ष के मार्ग मे मुक्ति मूलक रुकावट नही हे । वह एक ठहराव मात्र है। मृत्यु और जन्म से क्रम मे मोक्ष के लिए यात्रा चलती रहती हे । क्योकि मोक्ष के आगे कुछ नही है द्वार बन्द हे। जैनेन्द्र मोक्ष की मजिल तक पहुचने के लिए पग-पग चलकर जाना आवश्यक समझते है। हवा में उड कर नही अन्यथा पुरुषार्थ का कोई महत्व नही रह जायगा ।२
जैनेन्द्र मोक्ष की प्राप्ति के लिए चारो पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को आवश्यक मानते है। उसके अनुसार धर्ममय दृष्टि द्वारा अर्थ और काम के मार्ग द्वारा चलकर ही मोक्ष की मजिल प्राप्त हो सकती है।
जैनेन्द्र जीवन-सघर्ष से बचकर मिलने वाले मोक्ष को अच्छा नही मानते । जैनियो की मोक्ष सम्बन्धी धारणा भी जैनेन्द्र को अमान्य है । जैनियो के अनुसार आत्मा और शरीर दोनो भिन्न है, शरीर जड तत्वो से बना है, किन्तु आत्मा चेतन है। आत्मा 'स्व' की सूचक है और शरीर 'पर' का सूचक है। जैन दर्शन मे शरीर से अथवा 'पर' से छूटना ही आत्मा की मुक्ति है। इस प्रकार जैन तत्ववाद मे आत्म और 'शरीर' मे 'स्व' 'पर' का द्वैत भाव समाहित है। इसलिए उनमे विच्छेद की साधना का उपदेश दीखता है। मुक्ति का चित्र वहा सर्वथा विदेहता का है और शुद्ध आत्मा स्वरूपता के कैवल्य, सिद्ध रूप मे चित्रित किया गया है। जैन दर्शन मे मुक्ति व्यक्तित्व के काट छाट के मार्ग मे ही फलित होती है। उसमे जीवन की समग्रता और सत्यता का निषेध मिलता है। कर्म से मुक्ति और शरीर को तप द्वारा कृषित और विकार रहित करने पर ही मुक्ति सभव हो सकती है, किन्तु जैनेन्द्र जैनी होते हुए भी जैन दर्शन की एकागी मुक्ति को स्वीकार करने में असमर्थ है। उन्होने जीवन को समग्रता मे स्वीकार किया है। जैन दर्शन की एकागी दृष्टि को वे स्वीकार करने मे असमर्थ है । जैनेन्द्र ने अपनी कतिपय कहानियो मे भी इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए सत्यता की प्रतिष्ठा की है। 'बाहुबली' मे बाहुबली अपने शरीर को तप द्वारा अस्मि मात्र कर लेने पर भी कैवल्य नही प्राप्त कर पाता जब कि उसका भाई राज्य भोग करते हुए भी कैवल्य की प्राप्ति कर लेता है । कारण, बाहुबली के हृदय से तप द्वारा अपने 'अविजित' होने का अभिमान नही दूर
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त', पृ० ६६ । २ जैनेन्द्र कुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त', पृ० २०६ । ३ जैनेन्द्र 'प्रतिनिधि कहानिया', सपा० शिवनन्दनप्रसाद, पृ० १७६ ।