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जैनेन्द्र और धर्म
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सिद्धातो की प्रतिष्ठा नही की है। परम्परा के सस्पर्श मे रहते हुए भी वे परम्परागत विचारो से बधे हुए नही है। उनकी मोक्ष सम्बन्धी धारणा नितान्त मौलिक है।
जैनेन्द्र मोक्ष को मजिल न मानकर सफर मानते है । सफर का आनन्द तभी तक है जब तक कि मजिल का ज्ञान नही । मजिल को सोचकर चलने मे यात्रा मजिल के लिए होती है । जैनेन्द्र ने 'समय और हम', 'प्रश्न और प्रश्न' मे इन्ही विचारो की पुष्टि की है। उनका विचार है कि 'सफर जिसका काम है वह मुसाफिर मजिल को माने नही बैठेगा । मुझे तो यह लगता है कि जो मजिल को जान गया, वह कभी भी मजिल तक पहुचा नही ।
जैनेन्द्र के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति ससार के त्याग मे नही, वरन् उसके सहर्ष स्वीकार मे ही है । जैन दर्शन मे इस सूत्र 'सम्यग्दर्शन चरित्राणि' (मोक्ष मार्ग) मे ही मोक्ष का आदर्श स्वीकार किया है। यद्यपि जैनेन्द्र ने उपनिषद्, भागवत् प्रादि का दार्शनिक दृष्टि से अध्ययन नही किया है तथापि उपनिषदीय विचारो की झलक उनके साहित्य मे स्पष्टत मिलती है। जैनेन्द्र के अनुसार'ज्ञान, कर्म प्रोर भक्ति साधना के ये तीन वर्ग समझे जाते है। तीन ये तीन रहते होगे तब मुक्ति कैसे मिलती होगी, मै नही जानता ।२ जीवन प्रानन्द इकाई ही ज्ञान, कर्म और भक्ति की समग्रता मे ही जीवन का लक्ष्य पूर्ण होता है। तीनो मे से किसी एक के विकास द्वारा जीवन के खण्ड का ही विकास होता है । समष्टि का नही । व्यक्ति की पराकाष्ठा पर अह का विगलन हो जाता है। 'मै' की जीवन-यात्रा की सार्थकता 'पर' की स्वीकृति मे ही सम्पन्न होती है। जैनेन्द्र के जीवन-दार्शनिकता का मूल तत्व 'अह' का समष्टि मे खो जाना है। और यही तत्व उनके समस्त विचारो का आधार बिदु है।
वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार 'मोक्ष' का अर्थ ससार से मुक्ति नही वरन् 'अह' से मुक्ति पाना है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे मोक्ष मे कर्म से मुक्ति नही वरन् कर्म के लिए प्रेरणा होती है । जैनेन्द्र ने अपने नवीनतम सग्रह 'समय, समस्या और सिद्धान्त' मे भी स्पष्टत स्वीकार किया है कि 'मुक्ति' असल मे अह से मुक्ति है। अह का नाश नही हो सकता। अस्मित्व के निमित्त से तो अस्तित्व का बोध होता है। इसलिए जैनेन्द्र के अनुसार 'मुक्ति' अस्तित्व का वह विसदीकरण है, जहा उसके अस्तित्व से भिन्न अथवा विरुद्ध रहने की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। ग्रह अपने चारो ओर फैले इन सम्बन्ध सूत्रो मे पूरी तरह खुलकर
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० २०६ । २ जैनेन्द्रकुमार 'प्रश्न और प्रश्न', पृ० ४८ ।