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जैनेन्द्र और धर्म
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रोकना होगा, जीवन को उसकी सही धुरी पर फिर से निष्ठ और प्रतिष्ठ करना होगा । वैज्ञानिक सुविधाओ के आधार पर विश्व - चिन्तन' का भार अपने ऊपर धारण किए हुए ऊपर से मजिल खडी होती जा रही है किन्तु अन्दर से उसका जीवन नीव रहित होता जा रहा है । जैनेन्द्र के अनुसार 'धर्म आवश्यक है, उसी तरह जैसे मकान के लिए नीव आवश्यक होती है । कर्म की सफलता के लिए धर्म की स्थिरता जरूरी है ।' विचारो के मूल मे धर्म का निवास अनिवार्य है । जैनेन्द्र की आध्यात्मिक चेतना स्व-कल्याण मे ही केन्द्रित न होकर विश्व - कल्याण की स्थापना के लिए प्रयत्नशील है । उनके अनुसार 'धर्म से निरपेक्ष होकर जगत जो धडाधड उन्नति करता जा रहा है, उससे सकट टलता नही दीखता, बल्कि कुछ बढ़ ही रहा है ।" धर्म की इसीलिए जरूरत है कि वह उन्नति की बागडोर अपने हाथ मे ले ।" जैनेन्द्र ने आधुनिक युग मे जीवन को धर्ममय बनाने के लिए विज्ञान के धर्म सम्मत रूप को ही स्वीकार किया है । विज्ञान का सत्य सर्वत्र अपवाद रहित है, उसमे सघर्ष की स्थिति होने की सम्भावना कम रहती है । 'अनन्तर मे उन्होने धर्म विज्ञान सम्मत स्वरूप को ही स्वीकार किया है। धर्म का विज्ञान सम्मत रूप व्यक्ति को कर्मशील बनाने मे सहायक होता और उसके धर्ममय होने के कारण आध्यात्मिकता का भी पोषरण होता जाता है ।
जैनेन्द्र के अनुसार सच्चा धर्म वही है जिसमे अन्तश्चेतना और आन्तरिक प्रह्लाद बढता हुआ मालूम हो । जिसमे चित्त सिकुडता, सिमटता हो वही
१. जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० ५६ । २ जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० ४१
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-' इधर अध्यात्म का स्थान क्रमश विश्व और जीवन चिन्तन क्रमश लेता जा रहा है ।
३ (क) जैनेन्द्र कुमार ' इतस्तत', पृ० १६८ ।
(ख) 'विज्ञान मान लेता है कि जो है है । उससे झगडता नही उसके मार्ग मे उतरता है । ऐसे तथ्य को लेकर तह मे जाता है और उसी मे सतह से दूर हटता हटता सत्य के निकट पहुच जाता है । ऐसे, मानो कार्य के भीतर कारण को पकड़ लेता है । इससे घटना की हानि नही होती, ज्ञान की वृद्धि होती है । लगता है कि कर्ममय जगत मे उपराम पाकर यदि इसी तरह मनोमय जगत में उतरा जाये तो हानि नही होगी, वरन् कर्मण्यता के हित मे कुछ लाभ ही होगा ।' -- ' अनन्तर', पृ० १६ ।