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जनेन्द्र का जीवन-दर्शन
परम वम में केन्द्रित हो जाती है और वह हे अहिसा' पति अपन बम का ऊचा कहते हे प्रोर मोलवी अपने धम को। सब का यही विश्वास रहता है कि मेरा बम ही ससार से पार दिलाने का एकमात्र सही माग है। उनकी 'समाप्ति' शीपक कहानी गधम के नाम पर होने वाले वाद-विवाद का स्पाट र देखने का मिलता है। नन्धि प्राचार्यो के अनुसार कुठधाम का जो सन्माग पहचाने वाला है, वह है, जो मेरे धम का है। बाकी पोर पाया नहो तो क्या है । जैनेन्द्र इस द्वन्द्वपूण मताग्रह को स्वीकार करने के पक्ष में नही है । उनके अनुसार किमी के धम पर प्राघात करना हिमा है। प्रपने वर्म के प्रति निष्ठा होने के साथ ही दुमरे बम के प्रति भी प्रादर होना चाहिए। सच्चा धार्मिक व्यक्ति विनम्र होकर ही स्वधम पालन करता है।'
धर्म और सम्प्रदाय
धर्म अपने विशुद्द रूप में प्रत्यक्त हे क्योकि वह प्रात्म-म । मान्मा का हम केवल अनुभव कर गकते है अथवा उगफै अस्तित्व का अनुमान लगा सकते है, किन्तु उस देख नही सकत । किन्तु प्रात्मा की गाnir Iरीर पर रही मम्भव है। अन्यथा बह प्रा के गश्य है। आ-महान शरीर भी वही कहलायेगा। प्रत दानो का सहअस्तित्व अनिवार्य है। प्रभाव मगर की कल्पना मामारिक दृष्टि से उपयुक्त नही है। मानव जीवन म प रग, गरीली-अमीरी, ऊ च-नीच प्रादि नाना विभिन्नताप तिगावर हाली है। मनुष्य अपनी अज्ञानता के कारण इन बाम भदा को ही मत्य मान बैठता है और गमस्त जीवो के प्रारगतत्व की ममानता के रहर य को भूल जाता है। मी अज्ञानता के कारण व्यक्ति-व्यक्ति में मघर्ष उत्पन्न होता है। धर्म . गावनात्मक स्थिति है। भावना स्वय मे निर्बल है । जैनेन्द्र के अनुसार कारी रामभावना में इतनी क्षमता नही है कि वह अपन का चिरस्थायी बनाए रख सके । प्रत धम के स्थायित्व के लिए सम्प्रदाय अथवा मस्या का अस्तित्व अनिवाय हे । प्राचीनकाल से आज तक यदि मानव-धर्म स्थायी रह गका है तो वह विभिन्न धामिक सस्थानो, धामिक ग्रन्थो आदि म सन्निहित हाकर ही अक्षण
१ स्वधर्म गे गीमित ओर आदश के असीम होने के कारण हमको एक परम
धर्म प्राप्त होता है। वह ले अहिमा ।' २ --जैनेन्द्र 'ममाग्नि' गम्पा० शिवनन्दनप्रगाद, दिल्ली, १९६६, १० २०६ । ३ -जैनन्द्र 'रामाप्ति', पृ० २०७ । ४ 'मन्थन', पृ० १६६ ।