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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
ने जीवन को मशीन के सदृश्य बना दिया है, उसकी पात्मिक शवित विलुप्त हो गई है। सामान्यत धर्म और विज्ञान दो विपरीत स्थितिया प्रतीत होती है। धर्म यदि हृदय की वस्तु हे तो विज्ञान बुद्धि और तक की। वर्म के द्वारा हम आत्मतत्व को जानने का प्रयास करते हे ओर विज्ञान द्वारा ब्रह्माड मे व्याप्त अरण-परमारण के अन्तनिहित सत्य को समझने का प्रयास किया जाता है। जैनेन्द्र धर्म और विज्ञान के सम्बन्ध मे एक नवीन दृष्टि अपनाकर चले है । उन्होने धर्म और विज्ञान के मध्य की खाई को भरने का प्रयास किया है। उनके अनुसार यदि वर्म आत्मा की वस्तु है तो विज्ञान शरीर की वस्तु हे। दोनो का अटूट सम्बन्ध होना चाहिए। जैनेन्द्र के अनुसार आज धर्म का अस्तित्व स्थिर रखने के लिए उसके प्रति सच्ची श्रद्धा अनिवार्य है। श्रद्वाहीन धर्म की कल्पना निराधार है । भारत धर्मप्रधान देश हे । सामान्यत भारतवर्ष को ही विश्व का एकमात्र वार्मिक प्रतिनिधि समझा जाता है किन्तु सत्यता इस से परे हे भारतवासियो मे यह दभ हे कि वे अपनी आध्यात्मिकता के कारण ही उद्योग मे पिछडे हुए है, किन्तु यह उनका भ्रम है। वर्म का दिखावा करते हुए भी भारतीयो की आत्मा वर्म से मुक्त हो गई है । जैनेन्द्र अपने युग की इस रिगति से पूरगत परिचित है। इसीलिए उनके उपन्यासो मे धार्मिक कमकाण्ड आदि के दशन नही होते । उन्होने धर्म के जिस रूप को स्वीकार किया है, वह विज्ञानसम्मत है। उनके अनुसार वैज्ञानिक की सत्य के प्रति आस्था कभी भी समाप्त या मन्द नही होती। धर्म मे सत्य के सम्बन्ध मे विविध मतभेद हो सकते है, किन्तु विज्ञान मे सत्य जो है वह है चाहे वह प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर हो सके या नही। वह सतत् कार्यशील रहता है। जैनेन्द्र के अनुसार प्रावुनिक युग मे एकमात्र गाधी ही धर्म के महान वैज्ञानिक हुए है । विज्ञान का विषय ‘पदार्थ' है । वह वस्तु के अनासक्त होकर उसके सार तत्व को ग्रहण करने में प्रयत्नशील है। धर्म मे वस्तु ओर निज के प्रति अनासक्त भाव के दर्शन होते है । विज्ञान जीवन से ही सबद्ध है। मानव उपयोगिता से पृथक् होकर विज्ञान का कोई महत्व नहीं है। जैनेन्द्र ने धर्म को विज्ञानमय बनाने के हेतु उसकी आत्मा को हो ग्रहण कियी है । कम के प्रति सतत् निष्ठा ही विज्ञान का धर्म है । वस्तु भली हे या बुरी इससे विज्ञान का कोई सम्बन्ध नही है। धर्म का यही स्वरूप जैनेन्द्र ने 'कल्याणी' म भी व्यक्त किया है। धम के विज्ञान-सम्मत रूप को स्वीकार करने में वर्म
१ जैनेन्द्रकुमार 'इतस्तत' १८६ । २ जैनेन्द्र कुमार 'इतस्तत' १६० । ३ 'उपयोगी कर्म में अपने को भूलकर लगे रहना ही धर्म है।'
-जैनेन्द्र कल्याणी', दिल्ली।