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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
के दर्शन होते है । किसी के ऊपर आश्रित रहकर किसी प्रकार जीवनयापन करना अपरिग्रह नही, वरन् व्यक्ति की असली मनोवृत्ति का ही परिचायक है । जैनेन्द्र के मामा भगवानदीन के जीवन पर जैन धर्म के आदर्शो की गहरी छाप देखने को मिलती है, जैनेन्द्र उनके प्रभाव से मुक्त नही है । 'काशमीर की वह यात्रा' उनकी अपरिग्रही प्रवृत्ति का स्पष्ट उदाहरण है। भगवानदीन के आदेश से अमरनाथ की यात्रा मे वे अपने पास का एक-एक पैसा त्याग देते है। मार्ग के खर्च के लिए वे ईश्वर के आश्रित रहते है। उन्होने वहा अपने जीवन को साधु के जीवन मे ढालने का प्रयास किया था । यद्यपि साधु गृहस्थ धर्म के बन्धनो से मुक्त होकर दूसरो के सहारे जीवनयापन कर सकता है, किन्तु साधु के जीवन और गृहस्थ जीवन मे अन्तर है । धर्म समाज-सापेक्ष है । असामाजिक होकर धार्मिक व्यक्ति के कर्तव्यो की कोई सार्थकता नही है । ससार मे रहकर जीवनयापन के लिए धन का सग्रह आवश्यक है, किन्तु जैनेन्द्र एक स्थल पर कहते है--'कमाई एक चिन्ता का चक्कर है। सोचा कि जीवन वह जीकर देखना चाहिए, जहा स्वय जीविका प्रश्न न हो और आस्तिक चिन्ता का विषय न हो । वह जीवन बन्धन से हीन होगा और मुक्ति का क्या अर्थ है ?'' किन्तु जीवन के सघर्ष से घबडा कर ससार से मुक्ति लेने वाला व्यक्ति कभी भी महान नही हो सकता। मनुष्य का पुरुषार्थ कर्मशील होने मे है । 'अनन्तर' मे भी एक स्थल पर ऐसे ही विचारो के दर्शन होते है-- 'तुम जैसी कोई जो पैसे से समर्थ हो और मै उसकी सेवा पर होकर सर्वथा अपरिग्रही बन जाऊ २ उनके इन विचारो से यह स्पष्ट व्यक्त है कि जैनेन्द्र ने 'अनन्तर' मे प्रसाद को धन के प्रति आसक्त होते हुए भी अपरिग्रही होने के हेतु प्रयत्नशील बनाया है । सम्भवत यह जैनेन्द्र की अनिश्चित विचारधारा का ही परिणाम है । प्राय उनके सिद्वान्तो और पात्रो के आचरण मे भिन्नता मिलती है। स्वय धन के लिए प्रयत्नशील न होना पडे, क्योकि परिग्रह की प्रवृत्ति प्रयत्न मे से उत्पन्न होती है। किन्तु धन किसी-न-किसी स्रोत से बहकर आता रहे । इस प्रकार भावना
और कर्म दोनो मे दोष उत्पन्न हो जाता है । उपयुक्त उद्धरण को देखते हुए यह नही कहा जा सकता कि वह जैनेन्द्र के विचारो का प्रतिनिधित्व नही करता, वह किसी सामान्य पात्र द्वारा व्यक्त विचार होगे, क्योकि उनके जीवन और
१ जैनेन्द्र कुमार 'काश्मीर की वह यात्रा', पृ० ६७ । २ जैनेन्द्र कुमार 'अनन्तर', पृ० ६१ । ३ 'सास हम अनायास लेते है। उसके लिए प्रयत्न करना पडता है तब उसे
सास का रोग कहते है।' --जैनेन्द्र कुमार , 'मन्थन'।