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जनेन्द्र के श्विर सम्बन्धी विचार
अस्तित्व से अलग होते है और हम सब अलग ही है । अस्तित्व की जगह हम अस्मित्व है । परतुत्व ईश्वर अखण्ड इकाई है। ईश्वर को लेकर प्रश्न तो हमार 'म' भाव के कारण ही होता है, अन्यथा तो ईश्वर का अस्तित्व निर्विवाद ही है। गत परमेश्वर को मानकर स्वय से छुटकारा पाना चाहता है, किन्तु ईश्वर । मानने में नाना मान्यताए फलित होती है। विविध मान्यताप्रो के कारण कार की अखण्डता पर आघात होता है । अतएव जैनेन्द्र ईश्वर सम्बन्धी । गातानो को उचित नही समझते । उनकी दृष्टि मे ईश्वर चर्चा का ीि है। इसलिए इस सन्दर्भ मे उन्हे भटकना भी नही पडता। जैनन्द्र तार को जानने के यत्न मे व्यक्ति की अहता के ही दर्शन करते है। उनकी पि मे व्यक्ति का यह सोचना कि 'मै ईश्वर को जान सकता हूँ' कोरा मि" यावाद ।।द भला कब सागर को जान सकती है । बूद तो केवल रामु मे समान २ प्रस्मि' को 'अस्ति' मे खोकर ही पा सकती है, इसी प्रकार मनाप र म सोकर ही उसका अनुभव कर सकता है । ईश्वर साक्षात्कार के full fortी, वरन अन्तर्दृष्टि अर्थात् प्रज्ञा की आवश्यकता होती है । IIIT तो हम उसका अनुभव कर सकते है । ईश्वर की प्राप्ति हो । ग गोते लगाने से ही होती है । तर्कवाद द्वारा अनास्था की .. .। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी अन्तर्दृष्टि पर बल देते हुए स्पी।। ।। . 1 ग सहज ज्ञानात्मक अन्तर्दृष्टि से हम ईश्वर को देख मा...' . . नही प्राप्त हो सकती । बुद्धि उस दैवी रहस्य
जनेन्द्र की तकन्य प्राम्या
. . . मत्व को सिद्ध करने के प्रयत्न मे स्वय को उलझाते नही । र मारना का अस्तित्व अकाट्य है, क्योकि उस परम शक्ति के प्रागारमाना गम्भव और निराधार है । वे बौद्धिक जिज्ञासा द्वारा भी ॥ . . . मान करते है, जो उनके अत्यन्त ही निकट है। उनकी आमा र
अन्य वस्तुनो की सत्यता को स्वीकार करने मे
१. निमार २. .
..', दिल्ली, १९६८, प्र० स०, पृ० ८५। ! रवीन्द्र दर्शन', दिल्ली, १६६२, अनु० ज्ञानवती
रवीन्द्र दर्शन', दिल्ली, १६६३, पृ० ६३ (अनु०
३. ना
ज्ञानदीवार)