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__ जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार
प्रपच मे नचाता रहता है। जैनेन्द्र की आस्था भाग्यवादिता के रूप मे ही मुखरित होती है। उनके अनुसार व्यक्ति नाना सकल्प-विकल्प रचता रहता है, किन्तु होता वही है जो ईश्वर को स्वीकार होता है। श्री प्रभाकर माचवे ने भी जैनेन्द्र के विचारो को अज्ञेयवादियो के समकक्ष स्वीकार किया है । माचवे जैनेन्द्र के विचारो को स्पेन्सर आदि अज्ञेयवादी विचारको के सिद्धातो से पृथक् मानते हे । स्पेन्सर की विचारधारा विज्ञानसम्मत अधिक है । किन्तु जैनेन्द्र, तालस्टाय और गाधी जी की विचारधारा से सहमत है, जिसमे केट के 'परमात्म अस्तित्व' की नैतिक आवश्यकता का तर्क ही अधिक कर्मशील है।' जैनेन्द्र का दृष्टिकोण बौद्धिक से अधिक व्यवहार सम्मत है । बुद्धि के द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को न ही सिद्ध किया जा सकता और न ही प्रसिद्ध किया जा सकता है । सत्ता को बुद्धि के द्वारा जानने के प्रयत्न मे व्यक्ति का अहकार ही प्रकट होता है । परमात्मा को लेकर सदैव एक प्रश्नचिन्ह सामने उपस्थित रहता है। विश्व की विचित्रताप्रो के मूल मे एकमात्र वही है, किन्तु उसे कैसे जाना जाए? ससार मिथ्या हे । 'व्यर्थ प्रयत्न' मे परम तत्व को बरबस बुद्धि के द्वारा प्रत्यक्ष देखने की नेष्टा की गई है । ग्रन्थो के सहारे केवल यही जान पडता है कि वह यह नही है, वह वह नही है । तब यह और वह क्या है--- कैसे मालूम हो ? यही कैसे मालूम हो ?'२ अन्तत बुद्धि पराजित होती है और सबुद्धि ही सहायक होती है। जैनेन्द्र के अनुसार कभी-कभी ईश्वर की ओर से मिलने वाली निराशा ईश्वर को मिथ्या समझने लगती है। किन्तु जैनेन्द्र के अनुसार वह (ईश्वर) ऐसा झूठ हे जिससे ससार की समस्त असत्यता समाहित हो जाती है। ईश्वर को 'परम भक्ति' के रूप में स्वीकार कर लेने पर व्यक्ति का अहभाव विगलित हो जाता है । ईश्वर की भक्ति का नशा चढने पर वही सब कुछ प्रतीत होने लगता है । वस्तुत जैनेन्द्र की प्रास्तिकता तर्क से इतर समर्पण मे ही सत्य की खोज करती है । उन्होने ईश्वर को अनुभूति के स्तर पर ही स्वीकार किया है। 'काश्मीर की वह यात्रा' मे जैनेन्द्र को प्रत्यक्षरूप से ईश्वर के दर्शन नहीं हो पाते, किन्तु विराट प्रकृति के आकर्षण मे उन्हे एकमात्र ईश्वर के अस्तित्व की ही झलक मिलती है । अज्ञात ईश्वर उनके लिए अप्राप्य है किन्तु उसकी शक्ति
और रूप का अनुभव करते ही उनका हृदय आर्द्र हो उठता है । 'आत्मविभोरता' की स्थिति में प्रेम की अविरल धारा अश्रु बनकर प्रवाहित होने
१. प्रभाकर माचवे 'जैनेन्द्र के विचार', बम्बई, पृ० १३ । २. जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', सातवा भाग, तृ० स०, १९६३,
दिल्ली, पृ० १२७ ।