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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
है। वस्तुत जैनेन्द्र की ईश्वरीय प्रास्था कोरे विचार ओर तक का प्रतीक न होकर भक्तिमय प्रास्तिकता की अभिव्यक्ति है । उनके साहित्य का अध्ययन करते हुए कभी-कभी मन एकदम तन्मय हो उठता है और ऐसी स्थिति में लेखक का विचारक रप पीछे रह जाता है तथा श्रद्वालु लेखक का रूप प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगता है ।
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ईश्वर अज्ञय
उपरोक्त विशद् विवेचन के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहनते हे कि जैनेन्द्र की ईश्वरीय आस्था अज्ञेयवादियो के सदृश्य ही ईश्वर के स्वरूप को समझने मे असमर्थ हे । उनके अनुसार एक परम शक्ति प्रदृश्य रूप से सारे जगत का संचालन करती हे । व्यक्ति अपनी भावना और सबुद्धि के द्वारा उसके स्वरूप को समझने की चेष्टा करते हुए भी प्रतत परागय ही रहता है । 'सुखदा' मे सुखदा स्वीकार करती है कि मनुष्य का ईश्वर को जानने का समस्त प्रयत्न समुद्र के तट पर कौडिया खेलने वाले बालक के समय व्यय ही सिद्ध होता है । वह ईश्वर अपने निराकार रूप से समस्त ब्रह्माण में व्याप्त है | ara उसको अपनी कल्पना में सीमित करके निरपेक्ष मतव्य देना समय नही हो सकता । उसके सभव ग केवल हम सम्भावना ही कर सकते है, क्योंकि ईश्वर निरपेक्ष सत्य है, व्यक्ति का अभिमत सापेक्ष है। जैनेन्द्र ने गुखदा से व्यक्त किया है कि ईश्वर ऐसा सूत्रधार है, जो समस्त सृष्टि सुन को अपने हाथ में लिए हुए है । यद्यपि ईश्वर प्रज्ञेय है तथापि उसे जानन की व्यक्ति की जिज्ञासा कभी शान्त नही होती । सृष्टि ईश्वर का सत्य और प्रत्यक्ष रूप है। सृष्टि के प्रपच को देखकर ऐसा भान होता है कि व्यक्ति शतरंज की मोहर के सदस्य जड है और खिलाडी तो कही छिपा हुआ समस्त जीवो को माया के
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' उसका नशा कभी नही चुकता । उसको चाहो उसको पाना वह नशा है जो उनरेगा नही । वह अशान्ति मे भी शान्ति देगा ।'
-- जैनेन्द्रकुमार 'टकराहट' पृ० ६ ।
२ - जैनेन्द्रकुमार 'सुखदा', पृ० १८ ।
३.
खिलाड़ी तो जाने ऊपर-नीचे, यहा वहा कहा छिपा बैठा है । और हम उसके खेल में कठपुतली के मानिन्द नाचते । नाचते है सो मन में बहला भी लेते है । लेकिन हमारी यह सब उछल-कूद, जोड-जुगत अपने मन तक की ही है । तार पीछे कही किसी और के हाथ में है । हम सामने भर होने के लिए है । - जैनेन्द्रकुमार 'सुखदा', पृ० २०३ ।