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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
है, उसी प्रकार वस्तु के अन्त गर्भित गुण को ही उसका चम कहते हे । सब जीवो मे एक ही प्रात्मा का निवास है, अत रामस्त जीवधारियो का मूल धर्म एक ही है । शरीर की भिन्नता के सदस्य धर्म के बाह्य रूपो में भिन्नता हो सकती है, किन्तु ग्रात्म तत्व मे एकता प्रनिवाय है । जैनियो का यह प्रात्धम ही उनकी प्रमिक नीति और स्यद्वादी विचारधारा का मूल मावार हे । सब जीवो के प्रति प्रेम तथा सभी मतावलम्बियों के प्रति समान सादर की भावना जैन धर्म का मूलाधार है । प्रहिसा जैन धर्म का प्रारण है। उनके अनुसार प्रकृति के विभिन्न कार्य-कलाप अपना नियम तोड सकते हे गुम पश्चिम से निकल सकता है, चन्द्रमा से ग्रग्नि की वर्षा हो सकती है किन्तु जीवहत्या में धर्म कदापि स्थिर नही रह सकता । हिसा से बढकर कोई प्रधर्म नही है । "
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जैन वम का द्वितीय महत्वपूरण प्रग त्याग और ग्रपरिग्रह है । समस्त लोकिक इच्छा का त्याग, 'पर' के हेतु स्व सुख का त्याग, जैनियो के धर्म का उद्देश्य है । मानवता की सेवा प्रोर मानव मान के प्रति प्रेमभाव रखना ही धार्मिक व्यक्ति का लक्षण है । जेन नर्म में प्रति यह की प्रवृत्ति का निषेध किया गया है । कम-स-कम सर्च में ही जीवनयापन करना ही उनका गुनादर्श है । जैन तीर्थकर का कोई घर नही होता, वह प्रकति के मुक्त वातावरण में ही अपनी जीवनयात्रा पूरण करता है । उसका सम्पूर्ण जीवन एक कठोर तपस्या होती है । महावीर स्वामी का जीवन जैन धर्म की अपरिग्रही नीति का प्रत्यक्ष उदाहरण है | मनुष्य की इच्छा अनन्त है एक इच्छा के बाद दूसरी इच्छा जन्म ले लेती है । प्रत जैनियो के अनुसार परिग्रही होकर ही हम संसार मे सन्तुष्ट रह सकते है ।
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वस्तुन जैन धर्म जीवन के अन्य प्रादर्शो का समुच्चय है । वह सैद्वातिक और तात्विक होने से अधिक व्यावहारिक प्रोर विज्ञान सम्मत है ।
जैनेन्द्र के अनुसार धर्म का अर्थ और स्वरूप
जैनेन्द्र जैन धर्म से अत्यधिक प्रभावित है । जैनेन्द्र का साहित्य उनके इस प्रभाव का ही प्रमाण है । सभवत जैनेन्द्र ने जैन साहित्य का गंभीर अध्ययन किया है । अपने साहित्य में जैन धर्म के विभिन्न प्रगो और उपागो का भी उन्होने वरणन
१ विण्टरनिट्स 'दि हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर', पृ० ४२५ । - हिसा परमोधर्मो यतो धर्मस्ततो जय 'विजयधमसूरि' श्रात्मोन्नति दर्शन ।