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जैनेन्द्र और धर्म
___ जैन धर्म का उद्भव ब्राह्मण धर्म के पराभव का काल था। जैन और बौद्ध दर्शन का जन्म ब्राह्मण धर्म की परम्परागत रूढियो, अन्ध-विश्वासो और मिथ्या कर्मकाण्डो की प्रतिक्रिया का ही परिणाम है । ब्राह्मण धर्म उन दिनो जीवन के बाह्य कर्मकाण्डो तथा विविध मतवादो से इतना चिपटा हुआ था कि उसमे धर्म के प्रात्म-त्व को खोजना कठिन हो गया था। उस समय पूजा पाठ का बाहुत्य हो रहा था, किन्तु धर्म के प्रति लोगो की प्रास्था समाप्त हो रही थी। धर्म जीवन का अग न होकर मतवादो के प्रचार का माध्यम बन गया था। जैन दार्शनिको से पूर्व के समस्त भारतीय दार्शनिको ने 'ईश्वर के अस्तित्व', 'सृष्टि और सत्ता के सम्बन्ध' आदि अप्रत्यक्ष विषयो पर ही विचार किया था। उन्होने गूढ सत्य को खोजने का प्रयास किया था किन्तु जैन दार्शनिक जीवन के व्यावहारिक धरातल को ही अपने अध्ययन का विषय बनाकर चले है। उनका धर्म पारलोकिक न होकर प्रत्यक्ष जगत और मानव-व्यवहार मे ही निहित है। जैनदर्शन तर्क पर आधारित है,' अन्धविश्वासो पर नही । यही कारण है कि सैकडो वर्षों के बाद ग्राज भी अपनी उपयोगिता के कारण विश्व-व्यापी बना हुआ है। ____जीवन का उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है, किन्तु मोक्ष की स्थिति तक पहुचने के लिए मार्ग मे आने वाली विभिन्न स्थितियो की अवहेलना नही की जा सकती । मोक्ष दि मजिल हे तो सत्य अहिसा, अपरिग्रह, प्रेम, त्याग आदि वे सोपान है, जिनके माध्यम से हम मजिल तक पहुच सकते है । प्रत जैन दार्शनिको ने सान्य से अधिक साधन पर बल दिया । साधन की विशुद्धता के अभाव मे साध्य की प्राप्ति की कल्पना निरर्थक है । जैनियो ने अज्ञात के रहस्य को जानने से अधिक वर्तमान जीवन के उत्कर्ष की ओर ध्यान दिया है । जैन दर्शन ही विश्व का एक ऐगा महत्वपूर्ण दर्शन है, जिसमे वर्तमान भौतिकता और अध्यात्मवादी प्रवृत्ति का अपूर्व ‘सगम दृष्टिगोचर होता है । विज्ञान मे वस्तु अथवा 'मुद्गल' पर विशेष बल दिया गया है। ___ जैन धर्म मे 'धर्म' शब्द का प्रयोग वस्तु के स्वभाव अथवा उसके धर्म के लिए हुआ है । वस्तु का प्रकृति के प्रतिकूल आचरण अधर्म का सूचक है। अग्नि का गुरण ताप उत्पन्न करना, जल का शीतलता प्रदान करना, मनुष्य का धर्म मनुष्यता है । मानव-धर्म से च्युत व्यक्ति मोक्ष अथवा ईश्वर की प्राप्ति नही कर सकता । जैनियो के वस्तु धर्म का तात्पर्य आत्म-धर्म है। वस्तु मे विभिन्नता अनिवार्य है, किन्तु धर्म शाश्वत है, वह वस्तु के मूल मे विद्यमान है । जिस प्रकार शरीर में निहित आत्मा का धर्म ही व्यक्ति का वास्तविक धर्म
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V.R Gandhi 'The Jain Philosophy', (1924) Bombay,