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जैनेन्द के ईश्वर सम्वन्धी विचार
शहीद हो सकता है और हर यातना मे भगवान के प्रेम को देख सकता है । तब कष्ट ही उसे भगवान का भोग हो जाता है। जीवन मे जैनेन्द्र का ऐसा विश्वास हे कि 'हर व्यवित उसका ही है, जिसको वह कभी प्राप्त नही कर पाता।' जैनेन्द्र को पात्रो के जीवन मे लौकिक प्रेम के द्वारा ही अध्यात्म साधना की ओर उन्मुखता दृष्टिगत होती है। प्रेम मे लीनता तथा व्यथा का रस ही जीवन की शक्ति बनता है। प्रेम से बा-यता नही होती, वरन् सहजता ही रहती है।
ईश्वरवादी अपने विचारो और मान्यताओ के प्रचारक हो सकते है । वे अनीश्वरवादियो के विरुद्ध अपने मत के प्रतिपादन की चेष्टा करते है। किन्तु जहा आस्तिकता का लक्षण प्रेम , वहा प्रचार की आवश्यकता नही पडती । 'प्रेम मे व्यक्ति अनायास विस्तार पाता है। जैनेन्द्र की प्रास्तिकता 'अह' की पोषक नही है । इसलिए वे अपने को सुधारक या उद्धारक न मानकर ईश्वर का सेवक मानते हैं। सेवक का कर्तव्य दायित्वपूर्ण होता है । सेवा मे ही उसे परम आनन्द की उपलब्धि होती है । जैनेन्द्र के साहित्य मे 'पर' की स्वीकृति मे ही सेवा के दर्शन होते है। इसीलिए जनेन्द प्रानन्द और दायित्व मे कोई विरोध नही देखते ।
प्रेम का मानन्दगय रूप उपनिषदीय विचारधारा के अत्यधिक निकट है। डा० राया गन् । भारतीय दर्शन' मे उपनिपदो मे स्वीकृत ब्रह्म के 'आनन्द मय' सब पर पका नाला है । वस्तुत जैनेन्द्र का प्रेममय ईश्वर पारस्परिक विचारधारा गे पृथक् उनकी कोई भौतिक देन नही है।
हमारी पृथ्वी जिन परमारणो से बनी है, यदि उसमे उन्हे एक-दूसरे के साथ बाध रखने की शक्ति न हो तो सारी सृष्टि पल भर मे विनष्ट हो जाये। उसी प्रकार चेतन प्राणियो को परस्पर बाधने वाली शक्ति का नाम प्रेम है । यदि पारम्परिक प्रेम न हो तो जगत की अखण्डता नष्ट हो जाय । मानवमात्र का पति सद्भावना रखने से ही ईश्वर की प्राप्ति सम्भव हो सकती हे । रविन्द्रनाथ टैगोर भी प्रेमी-प्रेमिका के प्रेम को उत्तरोत्तर ईश्वरीय प्रेम मे ही परिणत हुआ पाते है । 'प्रेमी और प्रेमिका का भेद तब तक बना रहता है
१ सूर की गोगियो का वियोग पक्ष ही अधिक तीव्र और मर्मस्पर्शी है । २. जैनेन्द्रकुमार 'जगवर्धन', पृ० २०७-२०८ । ३ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ४६ । ४ जैनन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ४७ । ५ मा० राधाकृष्णन् 'भारतीय दर्शन', दिल्ली, १९६६, पृ० १५१ । ६ महात्मा गाधी 'यग इडिया' ५-५-२० । ५७ ।