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जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार
सौभाग्य ही समझते है । एक स्थल पर तो वे स्वीकार करते है कि इस हार को कृतार्थ भाव से मानना सीख गए है।
सगुण ईश्वर ___ जैनेन्द्र के अनुमार परम सत्य व्यक्ति से निरपेक्ष है, इसलिए वह परम सत्य अनुभूति निरपेक्ष है । वह बौद्धिक जनो को तृप्ति दे सकता है । इतर को महान सम्बद्धता चाहिए। इसलिए गाधी का सत्य शेष जनो के लिए ईश्वर अधिक सत्य होगा । गाधी जी उतनी सगुणता सत्य को पहनाने की आवश्यकता नही समझते । उन्होने निर्गुण निराकार रूप मे सत्य के प्रति अपना सम्पूर्ण भाव प्रदर्शित किया । इसलिए जब उन्होने कहा कि ईश्वर सत्य है, कहने की जगह सत्य ही ईश्वर हे पर सन्तुष्ट हुए तो उन्हे भगवत् स्थापना को मूर्त रूप प्रदान करने की आवश्यकता न थी। जैनेन्द्र के अनुसार निर्गुण निराकार मे उपलब्धि अथवा अनुभूति और सवेदन का भाव ग्राह्य नही है, इसलिए ईश्वरता से मडित करके ही उस परम सत् को हम अपने मन के निकट लाते है । उस निकटता का गाध्यम ही पेग अथवा भक्ति कहलाता है। इसीलिए भक्तो ने यहा तक कहा है कि हमे भगवान नही चाहिए भक्ति ही चाहिए । भक्त के लिए भक्ति ही प्रिय और निकट रहे, यही उसकी कामना होती है। जैनेन्द्र के साहित्य मे भगवान और भक्ति की उपरोक्त सत्यता प्रेम मे वियोग के स्तर पर दृष्टिगत होती है। उनकी दृष्टि में विरह ही वह स्थिति है, जिसमे प्रेम अथवा भक्ति अधिकाधिक घनीभूत होती है । इस प्रकार जैनेन्द्र के अनुसार भगवान् को 'सत् तत्व' के तल से उठाकर मानव, दया, अनुभूति मे सन्निविष्ट कर लिया जाता है। प्रेम ही भगवान है, यह इसी स्थिति का तथ्य है । जैनेन्द्र के साहित्य मे पारस्परिक प्रेम, सहानुभूति एव सेवा प्रादि के भावो मे ही भगवत् भक्ति की कल्पना की गई है।
ईश्वर . प्रेममय
जैनेन्द्र का साकार और सगुण ईश्वर प्रेममय है। प्रेम ही ईश्वर की प्राप्ति का एकमात्र माधन है । और उत्तरोत्तर साधन ही साध्य बन जाते है। जैनेन्द्र प्रेम को ही ईश्वर मानते है । जिस प्रकार गाधी सत्य को ही ईश्वर मानते है, उसी प्रकार जैनेन्द्र प्रेम को ही ईश्वर मानते है। यद्यपि यह सत्य है कि 'सत्य' से परे कुछ भी नही है । जो कुछ भी हे वह सत्य मे ही समाहित है। तथापि
१ जैनेन्द्रजी से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।