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जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार
रूप प्रपनी चरम सीमा पर पहुचकर ईश्वरीय प्रेम मे ही परिणित हो जाता है । यह स्थिति समर्पण द्वारा ही सम्भव होती है । प्रेम और ग्रह दो विरोधी तथ्य हे । जब 'मैं' 'पर' मे समर्पित होकर विलीन हो जाता है तभी प्रेम का लक्ष्य पूर्ण होता है । उस समर्पण मे अनायास ही ईश्वरीय प्रेम की उपलब्धि सभव हो जाती है । '
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ईश्वरीय श्रास्था द्वारा जीवन मे व्यवस्था
जैनेन्द्र के अनुसार ईश्वरीय आस्था जीवन मे व्यवस्था तथा सुख-शान्ति लाने का साधन है । ईश्वरीय आस्था के कारण ही समाज मे व्याप्त श्रेणी बद्धता सहज ही स्वीकार्य हो जाती है । क्योकि व्यक्ति स्वय को भाग्याधीन समझने लगता है । आस्तिक की दृष्टि मे भाग्यवश ही कोई गरीब है तो कोई अमीर है । प्रत्येक व्यक्ति के मन मे यदि यह विश्वास न हो कि सब ईश्वर की दया से होता हे तो जीवन मे प्रतिक्षरण स्पर्द्धा व द्वेष के कारण कलह मचा रहे । जैनेन्द्र की ईश्वरीय आस्था जीवन के सभी क्षेत्रो की परिचायिका है । आस्था कासकिय रूप धर्म है । वे राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शन आदि के मूल मे धर्माभिमुखता को अनिवार्य मानते है । धर्म अर्थात् ईश्वर का भय ही व्यक्ति को नैतिक प्राचरण से वचित रखता है । जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त ईश्वर-प्रेम मंदिर और मस्जिद तक ही परिमित नही है । उनके साहित्य मे हमे ऐसे स्थल कम ही प्राप्त होते है जहा परोक्ष रूप से पूजा अर्चना आदि की झलक मिल सके । कारण यह है कि वे प्रदर्शन से अधिक वास्तविकता को श्रय देते हे । प्रदर्शन मे सत्य विनष्ट हो जाता है अथवा उसका स्वरूप विकृत हो जाता है । किन्तु जैनेन्द्र के पात्रो के जीवन मे ईश्वर के प्रति निष्ठा शब्दो द्वारा प्रथना प्रवचन द्वारा अभिव्यक्ति नही प्राप्त करती वरन् प्रतिदिन के जीवन मे विषमता से जूझने तथा 'पर' की स्वीकृति अभिमानता मे ही उनकी आस्तिकता फलीभूत होते हुए दृष्टिगत होती है ।
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'प्रेम मे इतना निशेष ग्रात्मसमर्पण हो सकता है कि अनायास ईश्वर भक्ति का फल मिल जाय, बिना ईश्वर को जाने या उसका नाम लिए प्रेम की परिपूरणता मे ईश लाभ पा जाने के उदाहरण अनेकानेक मिल जायेगे ।'
-- जैनेन्द्रकुमार 'प्रश्न और प्रश्न', पृ० ८७ ।
'ईश्वर नामक सज्ञा सुव्यवस्था मे सहायता तो अवश्य देती है..." - जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया' ( नई व्यवस्था, भाग १ ), तृ०स० दिल्ली, १९६२, पृ० १६७ ।
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