________________
६८
जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
भी नही हे ।' जैनेन्द्र भी ईश्वर को स्वयंभू मानते है । उनकी दृष्टि मे 'ईश्वर' शब्द की ध्वनि में ही हे कि वह पैदा नही होता, फिर किसी से पैदा होने का प्रश्न ही नही उठता । वह केवल है । इस तरह वह अनादि अथवा आदि कारण है, पर कारण ऐसा कि कार्य उससे बाहर हो नही सकता ।' सब कुछ है और उस सब की समष्टि ही ईश्वर है । ईश्वर समग्रता तथा अखण्ड में है ।
वैज्ञानिक सिद्वान्तो के अनुसार यदि कुछ है तो उसका कारण अवश्य होगा । शून्य मे प्रस्तित्व की कल्पना निराधार है । इस सिद्धांत के आधार पर हम ईश्वर को प्रकृति से उत्पन्न हुआ नही मान सकते । क्योकि जड-जगत् असत् हे और उसका अस्तित्व भी ईश्वर के अस्तित्व के ही कारण सम्भव है । स्वय में उसका कोई महत्व नही । प्रत असत् से सत् ( परमेश्वर) की उत्पति की कल्पना नही की जा सकती ।
ईश्वर को कार्य भी नही माना जा सकता, क्योकि कार्य होने मे उसमे परम तत्व का अभाव हो जायेगा । वह तो आदि है, उसके पूर्व कुछ भी नही । कायकारण के चक्कर में अनवस्था दोष की सभावना रहती है प्रर्थात् किसी वस्तु के कारण की खोज अनन्त तक की जायेगी पर फिर भी उससे समाधान न होगा । अत मानना होगा कि गत्यक जन्मशील वस्तु की उत्पति किसी ऐसी वस्तु से हाती है जो स्वयं प्रज तथा स्रष्टा है ।
ईश्वर का स्वरूप
वस्तुतश्विर के अस्तित्व को जानने के अनन्तर उसके स्वरूप को जानना भी ग्रनिवाय हे । एक ही सत्य दृष्टि-भेद के कारण नाना रूपात्मक प्रतीत होता है । द्वैतवादी ब्रह्म रूप है, किन्तु व्यावहारिक जगत् में ब्रह्म को अपने समीप अनुभव करने के लिए उसे स्वरूप प्रदान करना आवश्यक है । ईश्वर रूप, प्राकार, मानव हृदय की जिज्ञासा और प्यास का परिणाम है, ब्रह्म उसकी बौद्धिक जिज्ञासा का विषय है । मानव-मन ग्रात्म समर्पण के लिए सदैव उत्सुक रहता है । मानव उसी स्थल पर अपने को समर्पित करना चाहता है, जहा उसे कुछ पान को शेष न रह जाए, अर्थात् उसकी समस्त इच्छाए स्वयं तृप्त हो जाय । ऐसा परम श्राश्रय स्थल ब्रह्म का ईश्वरमय स्वरूप ही है । जैनेन्द्र ने ब्रह्म
१ भगवद्गीता - ३, २, २० ।
२ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ४३ ।
३ 'भगवद्गीता' - 'ईश्वर शून्य से जगत् का निर्माण नही करता, वरन् अपने सत् स्वरूप से करता है ।'