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जैनेन्द्र का जावन-दर्शन
मौलिकता का परिचय दिया है । अतएव उनके अनुसार काम तृप्ति द्वारा दमित वासना की ही तुष्टि नही होती, वरन् स्त्री-पुरुष के पारस्परिक मिलन में भगवत्ता का बोध होता है तथा ग्रह विसजन की भावना को पोषण मिलता है, जिससे व्यक्तित्व का समुचित विकास सम्भव होता है ।
जेनेन्द्र ने खेल, पाजेब, आत्मशिक्षरण, फोटोग्राफ आदि कहानियो मे बाल मनोविज्ञान का प्रत्यविक स्वाभाविक वर्णन किया है । बाग-मनाविज्ञान की दृष्टि से 'खेल' उनकी बहुत ही सफल कहानी मानी जातो हे । बच्चो की परिमेय कल्पना-शक्ति का उन्होने बहुत आकर्षक चित्र प्रस्तुत किया है ।
जैनेन्द्र के साहित्य मे नम, अथ, राजनीति प्रोर समाज मे भोतिकता से प्रात्यात्मिकता पिण्ड से ब्रह्माण्ड 'स्व' से 'पर' की प्रोर जो उन्मुखता दृष्टिगत होती है, उसके मूल मे जैनेन्द्र के चिन्तनशील व्यक्तित्व की ही भातक मिलती हे | जैनेन्द्र लेखक होने के साथ ही साथ विचार प्रधान दार्शनिक भी है । उनकी दार्शनिकता तत्व की प्रचारक न होकर व्यावहारिक जीवन को माय प्रधान करने वाली धुरी हे । कोरी भावना व्यक्ति को कत्पना लोक का प्रारणी बना देती है । किन्तु व्यक्ति यथाय भूमि मे चरण रखता हुआ सम्भावनाश्रो के लोक में प्रगतिशीत होता है । जैनेन्द्र की वाशनिकता ययपि किन्ही स्थतो मे विषय की भावनात्मक गरिमा को बहुत बोकिन बना देती है, किन्तु विकाशत वह जीवन की सत्ता को उद्घाटित करने में ही सहायक होती है । उनके दर्शन का स्वरूप जीवन के साथ इतना ग्रात्मसात् होकर भिव्यक्त होता है कि उसकी दुमहता प्रोर जटिलता स्वत ही नष्ट हो जाती है । जैनेन्द्रका दर्शन उनके आत्मबोध प्रोर सत्यान्वेषण की प्रवृत्ति का ही परिचायक है । उनके जीवन-दर्शन में मनोविज्ञान का विशेषत योग रहा है। दर्शन समष्टि को व्यष्टि में समा लेने, प्रथवा व्यष्टि को व्यष्टि में समर्पित कर देने की भावना का पोषक हे । मनोविज्ञान व्यष्टि के ग्रन्तर्द्वन्द्व का विवेचित करने मे सक्षम हुआ है । जैनेन्द्र की दार्शनिकता दृष्टि प्रज्ञेय वादियो की मी रहस्यवादी हे । वे प्रदृश्य और प्रस्तुत के सम्बन्ध मे सदैव सम्भावित प्रथवा सापेक्ष को ही स्वीकार करते है । जो अग्राह्य है, उसके सम्बन्ध मे निरपेक्ष रूप से कोई निर्णय नही प्रस्तुत किया जा सकता । जैनेन्द्र की सापेक्षिक दृष्टि जैन दर्शन की प्रनेकान्तवादी दार्शनिकता का ही प्रतिफल है। जैन दर्शन मे सत्य क्या है, इस सम्बन्ध म अन्तिम निरणय नही दिया जा सकता ।
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१ जैनेन्द्र कुमार 'खेल' जेनेन्द्र की प्रतिनिधि कहानिया, सपा शिवनन्दनप्रसाद १६६६, प्र० स०, दिल्ली, पृ० ३४ ।