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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
जैनेन्द्र ने अपने कथासाहित्य मे पुनर्जन्म को अनिवार्य रूप से स्वीकार किया है । उन्होने उपन्यास और कहानियो मे पुनर्जन्म पर तात्विक रूप से विवेचन तो नही किया हे, किन्तु मृत्यु के बाद जीवन के द्वार को बन्द नही मानने । उनके अनुसार जन्म-मृत्यु का क्रम सतत् चलता रहता है । जैनेन्द्र के अनुसार मृत्यु के अनन्तर जन्म की स्थिति अनिवार्य है, किन्तु यह नही कहा जा सकता कि अमुक नाम का विशिष्ट व्यक्ति अपने पूर्वजन्म के कर्मो के सहित पुनजन्म गहण करता है । जैनेन्द्र की पुनर्जन्म सम्बन्धी धारणा परम्परागत भारतीय दार्शनिका से भिन्न हे । जैनेन्द्र का विश्वास हे कि यद्यपि ग्रन्य मान्यता भी स्वीकार्य हो सकती है, किन्तु वे भी व्यक्तिगत अभिमत मात्र ही हे, उन्हें परम सत्य के रूप मे स्वीकार नही किया जा सकता । जैनेन्द्र अपनी पुनर्जन्म सम्बन्धी मान्यता को तर्क और द्रष्टान्त के द्वारा पुष्ट करने का प्रयास करते हे । उन्होने पुस्पाय को बीच की स्थिति माना है । जन्म और कर्म के मन्य व्यक्ति की सम्यिता ही पुरुषार्थ है किन्तु पुरुषार्थी के लिए भाग्य का सहारा अथवा ईश्वर के पति विश्वास होना श्रावश्यक है, क्योकि कोरा पुरुषार्थ निराशा के क्षण से पुन गति प्राप्त करने की क्षमता नही देता, जब कि मला व्यक्ति पुरुषाय की सफलता को भाग्य का परिणाम मानकर प्रसन्तुष्ट नही होता । नन्द्र की भाग्य सम्बन्धी विचारधारा आस्तिकता म मदित है ।
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निष्कर्ष
जैनेन्द्र के साहित्य का पूर्णरूपेण अवलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका साहित्य स्वानुभव की भूमिका पर प्राधारित है । हृदयगत अतिशय वेदना ही साहित्यरूप मे अभिव्यक्त हुई है । वे स्वेच्छा से नगक या उपन्यासकार नही हुए । परिस्थितिगत विवशता ही उनके लेखन की प्रेरक बनी । श्रतएव उन्होने ग्रास-पास के जीवन को ही अपनी अनुभूति का पुट देकर चित्रित किया है । उन्होने जीवन के शाश्वत प्रश्नो का समाधान अपनी अन्तदृष्टि के द्वारा प्रदान किया है । चिरन्तन प्रश्नो के मत्य उन्हाने अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि से प्रवेश किया है। उनकी बौद्धिक सूक्ष्मता व्यक्तिगत चिन्तनशीलता का ही परिणाम है। उन्होने कभी भी ज्ञानवर्धन के हेतु शास्तीय पुस्तका का अध्ययन नही किया । उनकी गहन चिन्तन में अभिरुचि नही थी। जीवन मे घटित घटनाओ में उन्होंने तत्व दर्शन की झलक प्राप्त की है। धर्म, समाज, मनोविज्ञान यादि किसी भी विषय का उन्होने अपनी सबुद्धि के द्वारा विवेचन किया है । सत्य को जीवन से आत्मसात् करके देखने के कारण उन्हें जीवन से बाहर सत्यान्वेषण की प्रावश्यकता नही प्रतीत हुई ।