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जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका
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वस्तुत जैनेन्द्र ने जीवन के विभिन्न पक्षो का विशद् विवेचन किया है । उनका जीवन-दर्शन किसी पक्ष - विशेष का ही पोषक नही है । उन्होने जीवन विविधता के मध्य सन्तुलन स्थापित करने का प्रयास किया है । ईश्वर को स्वीकार करते समय वे जीवन की सामान्य घटनाओ की उपेक्षा नही करते । क्योकि जीवन की सार्थकता तो ससार मे रहकर ही पूर्ण होती है । अतएव जैनेन्द्र ससार मे रहकर ही जीवन को ईश्वरमय बनाना चाहते है । उनकी प्रास्तिकता जीवन के विभिन्न क्षेत्रो मे स्पष्टत दृष्टिगत होती है । जैनेन्द्र के साहित्य और दर्शन को चार खण्डो मे विभाजित करके स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है -- ( १ ) ईश्वर, (२) जीव, (३) अध्यात्म, (४) राष्ट्रीय जीवन की समस्याए और बाह्य प्रभाव ।
जैनेन्द्र राष्ट्रीय जीवन की विविध समसामयिक समस्याओ के प्रति बहुत ही सजग रहे है । समाज, देश, राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीयता से उत्तरोत्तर वे विश्वबन्धुत्व की भावना की ओर ही उन्मुख होते जा रहे हैं । धर्मनिरपेक्षता, भाषा, विदेश नीति, विग्रह, प्रौद्योगीकरण की नीति का उन्होने विशद् विवेचन किया हे । माक्सवाद, पुजीवाद, कम्युनिज्म, समाजवाद आदि विभिन्न वादो के सम्बन्ध में अपने विचारो को वैचारिक निबन्धो मे प्रस्तुत किया है । 'समय और हम उनकी ऐसी रचना है, जिसमे उन्होने देश-विदेश की विभिन्न नीतियो को भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य मे विवेचित किया है। भारतीय संस्कृति और राजनीति का उनके साहित्य पर बहुत अधिक प्रभाव पडा है । उनका सैद्धान्तिक विवेचन उनकी वैचारिक रचनाओ मे प्राप्त होता है, किन्तु उन सिद्धान्तो को उन्होने मानव जीवन के सन्दर्भ मे अपने उपन्यास और कहानियो में दर्शाया है । 'सुखदा', 'विवर्त', 'जयवर्धन', 'मुक्तिबोध' में विशेष रूप से राष्ट्रीय जीवन की समस्या पर प्रकाश डाला गया है ।
जैनेन्द्र की समस्त विचारधारा के मूल मे मानव- नीति ही मुख्यरूप से विद्यमान हे । मानव हित की सापेक्षता मे ही वे किसी भी मत या आदर्श को ग्रहण कर सके है । उनके जीवनादर्श पर महात्मागाधी की अहिसात्मक नीति का प्रभाव स्पष्टत परिलक्षित होता है । गाधी की अहिसा नीति मात्र जीव
हिसा के सन्दर्भ मे ही प्रयुक्त नही हुई है, वरन् उसे व्यापक अर्थो मे जीवन के विविध परिप्रेक्ष में प्रयुक्त किया गया है। देश-विदेश की पारस्परिक मित्रता, सौजन्य तथा एक-दूसरे के कष्ट मे होने की भावना के मूल मे भी उनकी अहिसात्मक दृष्टि ही विद्यमान है ।
जैनेन्द्र पर जैन दर्शन का प्रभाव भी पूर्णत लक्षित होता है। जैन धर्म जैनेन्द्र का स्वधर्म है । अपने साहित्य में उन्होने यत्र-तत्र इस सत्यता की ओर