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जैनेन्द के जीवन-दर्शन की भूमिका
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और भविष्य की रेखाग्रो से विभाजित करके समझने के पक्ष मे नही है। व्यक्ति का सत्य समय से पार चलने मे ही सार्थक हो सकता है। पार का तात्पर्य यह नहीं है कि वर्तमान पर दृष्टि ही नही रहे। जैनेन्द्र यथार्थ जीवन की उपेक्षा म विश्वास नहीं करते। उनके अनुसार धरती पर पैर रखते हुए भी दरिट अनन्त शून्याकाश से भी पार होनी चाहिए। उस अनन्तता की गोद मे जागतिक द्वन्द्व, भेद-भाव प्रौर अखण्डता का दोष स्वय मे ही तिरोहित हो जाता है। जेनेन्द्र ने प्राचीन भारतीय ऋषि-मुनियो के प्रादर्श को उपस्थित करते हुए 'जयवर्धन' मे जय को समय के पार देखने वाले आदर्श व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है ।
जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे व्यावहारिक जीवन मे उत्पन्न होने वाले वर्ग-भेद के ऊपर व्यक्ति की सत्ता स्वीकार की है। मनुष्य खण्डता मे जडित नही है। वह काल के अनन्त प्रवाह के सदृश्य अपनी जीवन यात्रा मे निरन्तर चलता जाता है, क्योकि उसका लक्ष्य स्थूल और व्यक्त के पार सूक्ष्म की खोज करना है। जैनेन्द्र ने अपनी कहानियो मे वर्तमान से इतर पौराणिक कथायो को अपनी कल्पना का पुट देकर तथा पौराणिक पात्रो को अपने
आत्मिक मत्य की अभिव्यक्ति का प्रतीक बनाकर वरिणत किया है। उनकी अन्य नहानियो मे तथा उपन्यासो मे उस दिव्यता की प्राप्ति का प्रयास है, जहा पहुचकर व्यक्ति नेतना भी विलुप्त हो जाती है, केवल शून्य शेप रह जाता है। स्त्री-पुरुष के प्रेम सम्बन्धो मे भी जैनेन्द्र के पात्र यथार्थ की शूमि से ऊपर उठकर सत्यान्वेषण का प्रयास करते है। वे वर्तमान से चिपटे नही रहते, वरन् स्वपन और कल्पना-लोक मे अपने समस्त जागतिका बन्धनो से मुक्त होकर अद्वैतता की प्राप्ति मे तत्पर रहते है ।
वस्तृत जैनेन्द्र साहित्य और जीवन के सम्बन्ध मे उच्चतम मान्यताप्रो को ही स्वीकार करते हुए चलते है। आत्मनिष्ठा और अखण्डता उनके साहित्य की प्रात्मा है। उन्होने सत्य की प्राप्ति मे बुद्धि से अधिक भावना ओर श्रद्धा को प्रश्रय दिया है। बुद्धि और विचार के लिए सामाजिक ओर लौकिक आदि धाराणाए सगत होती है, किन्तु जीवन का काम उनको लाघता हुआ भी चल सकता है। "वाह्य जगत् की सम्बद्धता पौर अपेक्षा जब
१ 'चेतना समय से नही चलती वरन् समय उसके पार चलता हे । “हो गये
जिन्होने समय के पार देखा है, " । "काल के बीच मनुष्य को अकाल बनना है, वह क्षण की उपासना से नही, शाश्वत के ध्यान से होगा।'
----जैनेन्द्रकुमार . 'जयवर्धन', पृ० ४६ ।