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जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका
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आदि व्यक्ति के द्वारा कल्पित सीमाए है, किन्तु मूलत अखिल सृष्टि कागज के नवशे की रेखाओ मे विभाजित नही है । 'राष्ट्रवादी' नीति मे अपने पडोसी राष्ट्र के प्रति मानवता, पशुता का प्रतीक बन जाती है । सीमा रेखा के कारण पड़ोसी राष्ट्रो के मध्य अवस्थित व्यक्तियों की पारस्परिक सहानुभूति और मानवीय संवेदना समाप्त हो जाती है । राष्ट्रीय विभाजन के कारण प्राय ऐसा होता है कि सीमा रेखा एक घर के कुछ कमरो को एक राष्ट्र विभाजित कर देती है यार कुछ को दूसरे मे । इस प्रकार एक साथ प्रेमपूर्वक रहने वाला परिवार विभाजन के बाद पारस्परिक सहानुभूति और सहृदयता खो बैठता है । वस्तुत जैनेन्द्र नक्शे की रेखाओ से परे सम्पूर्ण मानवता को एक सूत्र मे बाधने के पक्ष मे हे । राष्ट्र और राज्य बाह्य व्यवस्था के सूचक ही हो सकते हैं, किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय भावना ही प्रधान होनी चाहिए ।
जैनेन्द्र की राजनीतिक विचारधारा गाधीजी के आदर्शो से परिवेष्टित है । गाधीजी के अनुसार राजनीति, सौ फीसदी राज करने, बनाने या रखने की नीति होकर नही बैठ सकती । राजनीति निरपेक्ष रूप नही धारण कर सकती। मानव जीवन यदि भीतर ही भीतर रूग्ण होता जा रहा है, स्वार्थमपीवान नेताओं के द्वारा यदि सामान्य जीवन की उपेक्षा की जाती है, तो राजनीति शक्ति न रहकर शक्ति के उदय में बाधक सिद्ध होती है । ' राज्य की शक्ति व्यवस्थामूलक होनी चाहिए । आत्मानुशासन ही वह यन्त्र है, जिससे समस्त मानवता शामित हो । ऐसी स्थिति मे राजा प्रजा, नेता - जनता के मध्य की साई स्वत ही मिट जायेगी । जैनेन्द्र ऐसी ही राजसत्ता के पक्ष मे है, जिसमे शीर्ष पर कोई न हो, फिर भी व्यवस्था बनी रहे । यही कारण है कि 'जयवर्धन' में जय को सिहासन के प्रति कोई आसक्ति नही है ।
जैनेन्द्र के साहित्य का केन्द्र बिन्दु व्यक्ति और व्यक्ति का जीवन है । राजनीति मे व्यक्ति की उपेक्षा करके राष्ट्र को प्रगतिशील बनाने वाली
१ 'राज्य की सीमा है, वह लकीर धरती पर तो नही हे, सिर्फ नक्शे पर है, इसलिए राज्य कृतिम है ।' -- जैनेन्द्र कुमार 'जयवर्धन', दिल्ली, १९५६ प्र० स० पृ० ४११ ।
२.
१६६२, प्र० स० पृ० ७५ ।
जैनेन्द्र कुमार 'अकाल पुरुष गाधी', दिल्ली, ३. "भारतीय ग्रात्मा का कभी सिहासन पर चढ़
बैठने की आकाक्षा नही
हुई है। उधर उसकी सष्ट ही नही गई । रुचि ही नही रही । यहा उसने माया को देखा । उसकी शोध सत्य की थी, इसलिए वह शक्ति से और उसके प्रतीको से बाहर रही ।" प्र० स०, 'जयवर्धन'