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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
के रस से प्राद्र होकर ही उनके पान ग्रपनी जीवन-शाना सम्पन्न
कव है।
वेन्द्र प्रग और वेदना को जीवन का प्राधार माना है । प्रेम मे वि सरसव नही हो सकता । विशेषण विज्ञान का नियम है, किन्तु वेन्द्रमनुसार जीवन को गति सश्वेषणात्मक है । वह प्रेम के सुन से समस्त विदा को देती है । द्वेत भाव मिट जाता है । विज्ञान में हेत ही प्रधान नही होगा वरन् जीवन विभिन्न शाखाश्रो प्रतिशाखाप्रा में विभाजित हो जाता हे, केनुसार जीवन को वास्तविकता उसकी समग्रता से स्वीकाय I राती है। जरा पूरण का प्रतीक नही बन सकता । '
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नेवा राजनीति, समाजगास्त्र, मनोविज्ञान र दर्शनशास्त्र मानव जीवन की विविध परिस्थितियों का व्यापक "ययन लिया पादि विषय स्वयं निरपेक्ष रूप से जाने जाते हन्तु जवेन श्रपने साहित्य में उन्हें व्यक्ति की सापेक्षता मे विवेचित किया है। व्यक्ति का जीवन यास्न, समाजशास्त्र, जीव-विज्ञान या मटर है | सभी शार एकदूसरे से सरन्ति के किा विषय गानव जीवन, मानव परिस्थिति बना गानव जीवन स ही है। साहित्य मानव जीवन की सदनात्मक पनि पक्ति है । पत साहित्य मे जीव विज्ञान, ग्रर्थ, धर्म, समाज, राज ऐति विवचन श्रावण हे |
विचिन्ना या मासिक
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जैनेन्द्र का साहित्य जीवन की व्यापकता को स्वरा में समाहित करके युगata तथा युग की विविध समस्याओ को विवेचित करने में वह विक सहायक रहा है । जनेन्द्र के उपन्यास और कहानियों में जो व्यक्ति नेतना विष्टि में मुखरित हुई है, उसका प्रेरक तत्व उनका युगन्ना ही है । यह सत्य है कि उपन्यास ओर कहानियों में उन्होंने अपने सास-पास की बटनाया की होना का स्पर्श देकर वरित किया है, किन्तु उनके विनारात्म । निबन्धो
मे उनकी दृष्टि की व्यापकता युग बोल के प्रति जागरुकता का परिचय मिलता है । उनका युग-बोध पुस्तकीय ज्ञान तथा सकिय कार्यों का परिणाम न कर स्वानुभव पर आधारित है । यह सत्य हे कि जैनेन्द्र की राजनीतिक चेतना, सामाजिक जागरूकता उनके जीवन को सचेष्ट नही बना सकी उन्हान परिस्थितिगत प्रनुभव को साहित्य के धरातल पर अपने विचारा का कोवर पहना कर प्रस्तुत किया है ।
१ जैनेन्द्र कुमार 'समय और हम', दिल्ली, १९६२, प्र०स०, पृ०१५७-५८ ।
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